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________________ २२० ..अपचवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ $ ३६३. एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० जह० सागरोवमस्स सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा पलिदो० असंखे० भागेण ऊणा। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तं० जह० एया हिदी दुसमयकाला । एवं सव्वएइंदिय-पंचकाय-ओरालियमिस्स-कम्मइय०मदि-सुदअण्णा०-तिएिणलेस्सा-अभव०-मिच्छा०-असण्णि-अणाहारि ति । णवरि ओरालियमिस्स-कम्मइय० - काउलेस्सा- अणाहारि० सम्मत्तमोघं । तिसु लेस्सासु अणंताणुबंधिचउक्कमोघं । 5 ३६४. विगलिंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंडा० ज० पणुवीससागराणं पण्णारससागराणं सदसागराणं सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा वे सत्तमागा पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण ऊणा । सत्तणोकसायाणं ज० सागरोवमस्स चत्तारि ६३६३. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल दो समय है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, पाँचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी; कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी, कपोतलेश्यावाले और अनाहारक जीवोंमें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अोधके समान है। तीन लेश्याओं में अनन्तानन्धी चतुष्कका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल ओषके समान है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियादिक मार्गणाओं में जो मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति बतलाई है वह वहां सम्भव जघन्य स्थितिसत्त्वकी अपेक्षासे जानना । तथा सम्यस्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति दो समय उद्वेलनाकी अपेक्षा जानना। किन्तु औदारिक मिश्रकायोगी, कार्मणकाययोगी, कापोत लेश्यावाले और अनाहारक इन मार्गणाओंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि भी उत्पन्न हो सकता है और इनके रहते हुए उसका काल भी पूरा हो सकता है, अतः इन मार्गणाओंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति ओघके समान एक समय भी बन जाती है। तथा कृष्णादि तीन लेश्याओं के रहते हुए अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना भी होती है अतः इन तीन लेश्याओंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति ओघके समान दो समय बन जाती है । ६३६४. विकलेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल दोइन्द्रियोंमें पच्चीस सागरके सात भागोंमेंस पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण, तीन इन्द्रियोंमें पचास सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण और चौइन्द्रियोंमें सौ सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण है। सोलह कषायोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल दोइन्द्रियोंमें पच्चीस सागरके तेइन्द्रियोंमें पचास सागरके और चौइन्द्रियोंमें सौ सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है । तथा भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल दो इन्द्रियोंमें पच्चीस सागरके, तेइन्द्रियोंमें पचास सागरके और चौइन्द्रियोंमें सौ सागरके सात भागों में से पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून १. अ०प्रतौ सम्मामिच्छाइही० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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