SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ رحیمی در سر سجدے سے معه حره arwana गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपपडिद्विदिश्रद्धाच्छेदो ३६२. देवाणं णिरओघ । जोदिसि० विदियपुढविभंगो। सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजे त्ति विदियपुढविभंगो। णवरि दोवारमुवसमसढिं चढाविय उकस्सहिदिघादं कराविय पुणो ओदरिय दंसणमोहणीयं खइय अप्पिददेवेसु उक्स्साउहिदीएसुप्पाइय णिप्पिदमाणदेवचरिमसमए जहण्णअद्धाछेदो वत्तव्यो । सम्मत्तस्स देवोघं । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मामिच्छत्तस्स मिच्छत्तभंगो। करता है उस समय पुरुषवेदकी द्वितीय स्थितिमें स्थित अन्तिम फालिकी स्थिति संख्यात वर्ष प्रमाण पाई जाती है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके सब कर्मोंकी जघन्य स्थिति पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान बतानेका कारण यह है कि जो एकेन्द्रिय जीव अपने स्थिति बन्धके योग्य स्थितिके साथ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें उत्पन्न होता है उसके यथायोग्य समयमें सब कर्मोकी लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचोंके समान जघन्य स्थिति बन जाती है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति दो समय उद्वेलनाकी अपेक्षा कहनी चाहिये । ६३६२. देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान जघन्य स्थिति है। ज्योतिषियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम अवेयक तक दूसरी पृथिवीके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि जो दो बार उपशमश्रेणी पर चढ़कर और उत्कृष्ट स्थितिघात करके पुनः उतर कर और दर्शनमोहनीयका क्षय करके उत्कृष्ट युवाले विवक्षित देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके वहाँसे निकलनेके अन्तिम समयमें बारह कषाय और नौ नोकषायका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल कहना चाहिये। सम्यक्त्वका सामान्य देवोंके समान जघन्य स्थिति सत्त्वकाल है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक भी इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिसत्त्वकाल मिथ्यात्वके समान है। विशेषार्थ—सामान्य देवोंमें सामान्य नारकियोंके सामान जघन्य स्थिति कहनेका कारण यह है कि असंज्ञी जीव भी देवोंमें उत्पन्न होते हैं, अतः इस अपेक्षासे देवोंमें नारकियोंके समान मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति घटित हो जायगी। तथा विसयोजनाकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी, उद्वेलनाकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वकी और कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति भी नारकियोंके समान देवोंके बन जाती है। तथा उयोतिषियोंमें असंज्ञी जीव मर कर उत्पन्न नही होता अतः इनके दूसरी पृथिवीके समान मिथ्यात्वादिककी जघन्य स्थिति घटित करके कहनी चाहिये । विशेषता इतनी है कि इनके अपनी उकृष्ट आयुका विचार करके ही कथन करना चाहिये । यद्यपि सौधर्मस्वर्गसे लेकर नौ अवयक तक मिथ्यात्वादिककी जघन्य स्थिति दूसरी पृथिवीके समान बन जाती है पर सौधर्मादिक स्वर्गों में सम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होता है, अतः यहां द्वितीय पृथिवीके नारकियोंके जघन्य स्थितिके कथनसे कुछ विशेषता है जो मूलमें बतलाई है, अतः उसके अनुसार इनके जघन्य स्थिति घटित करके जानना चाहिये। किन्तु यहां कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होता है अतः यहां सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति द्वितीय नरकके समान न जानकर सामान्य नारकियोंके समान जाननी चाहिये। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक सम्यग्दृष्टि ही उत्पन्न होते हैं, अतः इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति दो समय नहीं बन सकती है और इसलिये इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके समान जाननी चाहिये । तथा शेष कर्मोंकी जघन्य स्थिति सौधर्मादिक स्वगाके समान जानना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy