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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिअंतरं ३३६ ६ ५६४. देव० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णक्क० एयस । सम्मत्त० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एगस०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । सम्मामि० जह० जह० पलिदो० असंखे०भागो । उक्क० एकत्तीससागरो० देसूणाणि । अजह० जह० [ एगसमओ, ] उक्क० एकत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अणंताणु० ज० अज० ज० अंतोमु०, उक्क एकत्तीस० देसूणा० । तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके समय प्राप्त होती है तथा इसके बाद इनका पुनः सत्त्व सम्भव नहीं, अतः इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं कहा। अब शेष जो छह प्रकृतियां बचती हैं सो उनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके अन्तरके विषयमें जिस प्रकार पंचेन्द्रिय तियंचके खुलासा कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी खुलासा कर लेना चाहिये । किन्तु इनके सम्यग्मिथ्यात्वको जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल ओघके समान बन जाता है, क्योंकि इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके समान क्षपणा भी पाई जाती है। ६५६४. देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योफ्मके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। विशेषार्थ—जो असंज्ञी दो मोड़ा लेकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके दूसरे विग्रहके समय ही मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति सम्भव है। तथा इसी जीवके प्रतिपक्ष पंकृतियोंके बन्धकालके अन्त में सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति सम्भव है, अतः सामान्य देवोंके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर काल नहीं कहा । तथा इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति एक समय तक पाई जाती है, अत: इनके उक्त कृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा। देवोंमे कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं अतः इनके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्भब नहीं है। कारण स्पष्ट है । जिस देवके उद्वेलनाके एक समयके अन्तरालसे उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, उसके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका अन्तर एक समय पाया जाता है अतः देवोंके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय कहा । देवोंमें उपरिम प्रैवेयक तकके देव ही मिथ्यादृष्टि होते हैं। अब जिस देवने वहाँ उत्पन्न होनेके पहले समयमें सम्यक्त्वकी उद्वेलना करके अजघन्य स्थितिका अन्तर किया और अन्तर्मुहूर्तकालके शेष रह जाने पर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिको प्राप्त किया उसके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल कुछकम इकतीस सागर पाया जाता है, अतः सामान्य देवोंके उक्त प्रकृतिकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि त: सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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