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________________ अयधवलासहिदे कसा पाहुडे [ द्विदिहिती ३ S५६५. भवण० वाण० मिच्छत्त० - बारसक० णवणोक० जह० अज० देवोघं । सम्मत्त० - सम्मामि० जह० ज० पलिदो० असंखे० भागो । उक्क० सगहिदी देभ्रूणा । अज० ज० एयस०, उक्क० सग० देसूणा । श्रणतारणु० चउक० जह० अ० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देणा । जोइसियादि जाव उवरिमगेवज्जो त्तिमिच्छत्तबारसक० - णवणोक० ज० ज० णत्थि अंतरं । सम्मत्त ज० णत्थि अंतरं । अज० अणुकरसभंगो । सम्मामि० जह० ज० पलिदो० असंखे० भागो । उक्क० सगसगुक्कसहिदी देणा । अज० अणुक्कस्तभंगो । अनंताणु० चउक्क० ज० अज० ज० ३४० जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त करते समय जीवनमें पल्यके असंख्यातवें भाग कालके शेष रह जाने पर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करावे और वहांसे निकलनेके अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति प्राप्त करावे । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण जिस प्रकार तिर्यंचके घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार सामान्य देवोंके घटित कर लेना चाहिये । तथा जिस देवने सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलनाके पहले समय में सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है, अतः देवोंके सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय कहा । अनन्तानुबन्धीकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके जघन्य अन्तरकालको जिस प्रकार तिर्यंचोंके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार सामान्य देवोंके घटित कर लेना चाहिये। एक देव है जिसने जीवन के प्रारम्भ में विसंयोजना के अन्तिम समय में अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिको प्राप्त किया अनन्तर वह मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया और जब जीवनमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाय तब वह पुनः अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिको प्राप्त करे तो उसके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका अन्तर कुछकम इकतीस सागर बन जाता है, अतः समान्य देवोंके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा । तथा जिस देवने प्रारम्भमें विसंयोजना द्वारा विसंयोजना के अन्तिम समय में अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका अन्तर किया और जीवन भर वह सम्यक्त्वके साथ रहा । पुनः जीवनके अन्तिम समय में वह मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ तो उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका अन्तर कुलकम इकतीस सागर पाया जाता है, अतः इसका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा । · ९५६५. भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर सामान्य देवोंके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । ज्योतिषियोंसे लेकर उपरिमयैवेयक तकके देवोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है तथा जघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा अजघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है । अनन्तानुबन्धी agrrat जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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