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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिअंतर ३४१ अंतो०, उक्क० सगहिदी देसूणा । णवरि जोइसिएसु सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। अणुद्दिसादि जाव सव्वह० सव्वपयडीणं ज० अज० णत्थि अंतरं । कम्मइय-आहार०. आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्जा-विहंग०-संजद०सामाइय-छेदो०-परिहार० सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंस०-सम्मादि०खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्माभि०-अणाहारए त्ति णत्थि अंतरं। ५६६. एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक-भय-दुगुंछ० जह० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु । सम्मत्त०-सम्मामि० ज० अज० पत्थि० अंतरं । सत्तणोक० ज० ज० अंतोम०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जहण्एक० एगस० । एवं सुहुम० । बादराणमेवं चेत्र । णवरि सगहिदी देसूणा । एवं बादरपजत्ताअपनी स्थितिप्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार कार्मणकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबाधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, विभंगज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। विशेषार्थ भवनवासी और व्यन्तरदेवोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते. अतः इनके वहाँ सम्भव सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल बन जाता है, क्योंकि एक बार सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिको प्राप्त करके पुनः उसी स्थितिको प्राप्त करने में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल लगता है। शेष कथन सुगम है। ज्योतिषियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका प्राप्त होना जीवनके अन्तिम समयमें सम्भव है, अत: इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं पाया जाता । ज्योतिषियोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता, अतः उनके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल भवनवासियोंके समान बन जाता है, शेषके नहीं। अनुदिशादिकमें सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं, अतः वहां किसी भी प्रकृतिका अन्तरकाल सम्भव नहीं है। इसी प्रकार आहारककाययोगसे लेकर सम्यग्मिथ्यादृष्टि तकके जीवोंमें अपने अपने कालके अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति होनेके कारण अन्तर संभव नहीं है। कार्मणकाययोग और अनाहारक ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें सम्भव सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्भव नहीं, क्योंकि वहां अन्तरालके साथ दो बार जघन्य या अजघन्य स्थिति नहीं पाई जाती। ६५६६. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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