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________________ ३४२ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ ० पज्जत्ताणं । सुहुमपज्जत्तापजत्तएसु मिच्छत्त - सोलसक०-भय-दुगुंछ ० जह० जहण्णुक्क • अंतोमु० । अ० ज० एंगस ०, उक्क० अंतोमु० | सत्तणोकसाय० ज० जहरागुक्क अंतोमु० । अज० जहण्णुक्क एगसम । [सम्मत्त-सम्मा० ज० अज० णत्थि अंतरं ।] ९५६७. पंचिंदिय-पंचिं० पज्ज०-तस० - तसपज्ज० मिच्छत्त - बारसक० - णवणोक जह० ज० णत्थि अंतरं । सम्मत्त० ज० णत्थि अंतरं । अज० अणुक्क० भंगो । सम्मामि० ज० ज० अंतोमु० । अज० ज० एगस ०, उक० सहिदी देणा । अनंताणु० ० • जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रियों के जानना चाहिये । बादर एकेन्द्रियोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिये । इसी प्रकार बादर पर्याप्तक और बादर अपर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिये । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्त जीवों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । विशेषार्थ - जो बादर एकेन्द्रिय मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिको प्राप्त करके पुनः उसे प्राप्त करना चाहता है उसे वैसा करनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्तकाल लगता है अतः एकेन्द्रियोंके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । तथा यदि ऐसा जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें अपने उत्कृष्ट काल तक परिभ्रमण करे और फिर बादर एकेन्द्रिय हो कर जघन्य स्थिति प्राप्त करे तो असंख्यात लोकप्रमाण काल लगता है, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा । तथा एकेन्द्रियों के उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनके अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। इनके सात Pravrrit जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वोक्त रीति से ही घटित कर लेना चाहिये | किन्तु अजघन्य स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि इनके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय प्रमाण ही होता , अतः अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय प्रमाण ही प्राप्त होगा। एकेन्द्रियोंको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती, अतः उनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्भव नहीं, यह स्पष्ट ही है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रियों के मिथ्यात्वादिकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है। शेष कथन पूर्वोक्त प्रमाण ही है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हो है, अतः इनके उक्त सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो जाता है । शेष कथन पूर्वोक्त प्रमाण ही है । ५६७. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अजघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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