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________________ :: नयंधवलासहिदे कसायपाहु. [डिदिहिती ३ ९५६२, पंचिं० तिरि० अ ] पज्ज० मिच्छत्त - बारसक० - बगोक० पचिं०तिरिक्त्वभंगो | अनंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णाजहण्ण० णत्थि अंतरं । एवं मणुस पज्ज० - सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्ज० - तसपज्जते ति । ९५६३, मणुसतिय० मिच्छत बारसक० - णवणोक० जह० अ० णत्थि अंतर । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो | णवरि सम्मामि० जह० ओघं । ३३८ अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूत कहा । उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंका जो उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक तीन पल्य बतलाये हैं सो इसके आदि और अन्त में अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करावे और इस प्रकार उभयत्र अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति ले आवे, अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहा । किसीने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना के अन्त समय में अजघन्य स्थितिका अन्तर किया और अन्तर्मुहूर्त के बाद मिथ्यात्व में जाकर उसने पुनः अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थिति प्राप्त करली तो उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है इसीलिये उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य हैं यह स्पष्ट ही है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति एक समय तक पाई जाती है, अतः इनके सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा । $ ५६२. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों का भंग पंचेन्द्रियतिर्यंचों के समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है । सम्यक्त्व और समयकी जघन्य और अजवन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवों में जानना चाहिये । विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके मिध्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्भव नहीं तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है और यह सब व्यवस्था पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के समान है, अतः इस कथनको पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के समान करनेकी सूचना की । पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक के अनन्तानुबन्धीकी जघन्य और जघन्य स्थिति के अन्तर के सम्बन्धमें यही व्यवस्था जाननी चाहिये, अतः इसके कथनको मिध्यात्व के समान कहा । पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपाप्तकोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना तो होती है पर इसी पर्यायके रहते हुए पुनः इनकी प्राप्ति नहीं होती, अतः इनके उक्त दो प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर काल नहीं बनता । मूलमें मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान कहा । ९ ५६३, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्याख, बारह कषाय और नौ नोकषायों की जन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । शेष प्रकृतियों का भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर के समान है । विशेषार्थ - मनुष्य त्रिकके मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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