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________________ ४०० .. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ सेसपयडीणं ज० अज० पंचिंतिरिक्खभंगो। एवं काउ० । किण्ह-णीललेस्साणमेवं चेव । णवरि सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो । असंजद० तिरिक्खभंगो। णवरि मिच्छतस्स सम्मत्तभंगो। ओरालियमिस्स० तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० ज० अज. सव्वद्धा। पंचिं०तिरि०अपज्ज. मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अज० सव्वद्धा। सम्मत्त-सम्मामि० ज० एगस, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अज० सव्वद्धा । एवं सव्वविगलिंदियपंचिंदियअपज्ज-बादरपुढविपज्ज-बादराउपज्जा-बादरतेउपज्ज०-बादरवाउपज्ज०बादरवणप्फदिपत्रेयपज्ज०-तसअपज्जते त्ति । णवरि पंचकाय-बादरपज्ज० मिच्छ० सोलसक०-भय-दुगुंछ० जह० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । तथा शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। इसी प्रकार कापोतलेश्यावाले जीवोंके । जानना चाहिए। कृष्ण और नीललेश्यावाले जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। असंयतोंमें तिर्यंचोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में सामान्य तिर्यंचोंके समान जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्सकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल सवंदा है । इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय पंचेन्द्रियअपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरपर्याप्त और बस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पांचों स्थावरकाय बादर पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलहकषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-तियचोंका प्रमाण अनन्त है, अतः उनमें कोई न कोई जीव निरन्तर मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिको प्राप्त होते रहते हैं, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल सर्वदा कहा। अब शेष रहीं सात नोकषाय, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क ये तेरह प्रकृतियां, सो सामान्य तियेचोंकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व को छोड़कर इनकी जघन्य स्थिति पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके ही प्राप्त होती है और इन सबकी अजघन्य स्थिति पंचेन्द्रिय तिथंचोंके सर्वदा पाई जाती है, अतः इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके कथनको पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान कहा। किन्तु सम्यग्मिमथ्तात्वकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल सामान्यकी अपेक्षा भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रेमाण है और पंचे।न्द्र तिर्यंचोंके भी इतना ही है अतः सामान्य तिर्यंचोंके इससे अधिक नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वकी ओघ जघन्य स्थति सर्वत्र बनजाती है, अतः सामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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