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________________ गा० २२ ] हिदिविहती उत्तरपयचिद्विदिविहन्तिय का लो ४०१ ९ ६६७. मणुस० मिच्छ० सम्म० सोलसक० तिण्णिवेद० जह० ज० एस० । उक्क० संखेज्जा समया अज० सव्वद्धा । सम्मामि० छण्णोक० ओघं । मणुसपज्ज० एवं चैव, णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो | इत्थिवेद० छण्णोक० भंगो । मणुसिणी ० तिर्यंचोंके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका काल पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान कहा । कापोतश्यामें उक्त सब व्यवस्था बन जाती है अतः कापोतलेश्याके कथनको सामान्य तियँचोंके समान कहा। यही बात कृष्ण और नीललेश्याकी है । किन्तु कृष्ण और नील लेश्यावालों में कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं अत: इनमें सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थिति न प्राप्त होकर आदेश जघन्य स्थिति प्राप्त होती है और इसलिये इन दोनों लेश्याओं में सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के कालको सम्यग्मिथ्यात्वके समाने कहा। असंयतोंके भी सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अन्य स्थितिका काल सामान्य तिर्यचोंके समान बन जाता है, क्योंकि इनका प्रमाण भी अनन्त है । किन्तु मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति के कालमें विशेषता है । बात यह है कि असंयत मनुष्य भी होते हैं और इस प्रकार असंयतोंके मिध्यात्वकी ओघ जघन्य स्थिति भी बन जाती है, अतः असंयतों के मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा जो कि सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालके समान है । श्रदारिकमिश्र काययोगियों के भी सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल सामान्य तिर्यचों के समान बन जाता है, क्योंकि इनका प्रमाण अनन्त है । परन्तु श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीव अनन्तानुबन्ध चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करते अतः इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी ओघ aar स्थिति न प्राप्त होकर आदेश जघन्य स्थिति ही प्राप्त होती है और इसलिये इनमें इसका काल सर्वदा बन जाता है यही सबब है कि औदारिकमिश्रकाययोग में अन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और जघन्य स्थितिका काल सर्वदा कहा। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में जो एक rtant अपेक्षा मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल दो समय तथा शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है, नाना जीवों की अपेक्षा निरन्तर होनेवाले उस कालको यदि जोड़ा जाय तो वह आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता है, अतः यहाँ सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा । शेष कथन सुगम है । इसी प्रकार जो सब विकलत्रय आदि मार्गणाएं बतलाई है उनमें घटित कर लेना चाहिये । किन्तु पांचों स्थावर काय बादर पर्याप्त जीवोंमें एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अब यदि इसे आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणित कर दिया जाय तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल प्राप्त होता है अतः पांचों स्थावर काय बादर पर्याप्त जीवोंके उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा । शेष कथन सुगम है । 1 $ ६६७. मनुष्यों में मिथ्यात्व सम्यक्त्व, सोलह कषाय और तीन वेदकी जघन्य स्थिति - विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । सम्यग्मिथ्यात्व और छह नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल ओघके समान है । मनुष्य पर्याप्तकोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है । तथा स्त्रीवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है । मनुष्यनियोंमें सामान्य मनुष्यों के समान भंग है । किन्तु ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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