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________________ ३४६ धवलासहिदे कसा पाहुडे उक्क सहिदिपडिसेहमुहेण अकस्सट्ठिदिपउत्तीदो वा । * जो अणुक्कस्सियाए हिदीए विहत्तित्रो सो उक्कस्सियाए हिदीए होदि विहति । ५७५, कुदो ? परोप्परपरिहारसरूवेण उक्कस्सागुक्कस्स हिदीणमवद्वाणादो। एवदमेगमपदं । किमद्वपदं णाम ? भणिस्समाण अहियारस्स जोणिभावेण वहिदअत्थो अत्थपदं णाम । * जस्स मोहणीयपयडी श्रत्थि तस्मि पयदं । कम्मे ववहारो णत्थि । $ ५७६, सुगममेदं । पदे मिच्छुत्तस्स सव्वे जीवा उक्कस्सियाए हिदीए सिया * एदे विहत्तिया । [ हिदिविहती ‍ $ ५७७, एत्थ सियासदो कदाचिदित्यस्यार्थे द्रष्टव्यः, तेण कम्हि वि काले सव्वे जीवा मिच्छत्तु कस्स हिदीए अविहत्तिया होंति त्ति सिद्ध । किमहमुकसहिदीए सव्वे जीवा कमेण अविहत्तिया ? ण, तिव्वसंकिलेसाणं जीवाणं पाएण संभवाभावादो । नहीं पाये जाते । अथवा उत्कृष्ट स्थितिका प्रतिषेध करके अनुत्कृष्ट स्थितिकी प्रवृत्ति होती है, अतः जो उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला है वह उसी समय अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला नहीं हो सकता । * जो अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला है वह उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला नहीं होता । ९ ५७५. शंका- अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला क्यों नहीं होता ? समाधान - क्योंकि एक दूसरेका परिहार करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितियाँ रहती हैं, अतः जो अनुत्कृष्टस्थितिविभक्तिवाला है वह उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला हो सकता । इस प्रकार यह एक अर्थपद है । शंका- पद किसे कहते हैं ? समाधान कहे जाने वाले अधिकार के यो निरूपसे अवस्थित अर्थको अर्थपद कहते हैं । * जिसके मोहनीय प्रकृति है उसका यहाँ प्रकरण है, क्योंकि मोहनीय कर्मसे रहित जीवमें यह व्यवहार नहीं होता । ९५७६. यह सूत्र सुगम है । * इस अर्थपदके अनुसार कदाचित् सब जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के विभक्तिवाले हैं । $ ५७७. यहाँ सूत्रमें आया हुआ 'स्यात्' शब्द 'कदाचित्' इस अर्थ में जानना चाहिये । इससे यह सिद्ध हुआ कि किसी भी कालमें सब जीव मिथ्यात्यकी उत्कृष्ट स्थितिकी विभक्तिबाले होते हैं। शंका- सब जीव एक साथ मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के अविभक्तिवाले क्यों होते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि तीव्र संक्लेशवाले जीव प्राय: करके नहीं पाये जाते हैं, अतः सब जीव एक साथ मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिकी विभक्तिवाले होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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