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________________ गा० २२) द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तीए भंगविचओ ३४५ $ ५७२ किण्ह-णील-काउ० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुछ ० ज० णत्थि अंतरं । अज० ज० एयस०, उक्क० अंतोमु० । सत्तणोक० जह० णत्थि अंतरं। अज० जहण्णुक एगसमओ। सम्मत्त-सम्मामि० ज० जह० पालिदो० असंखे०भागो । अज० ज०. एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणंताणु०चउक्क० ज० अज० ज. अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । णवरि काउ० सम्मत्त० जह० णत्थि अंतरं । तेउ० सोहम्मभगो। पम्म० सहस्सारभंगो। सुकले० मिच्छत्त०-बारसक-णवणोक० ज० अज. णत्थि अंतरं । सेसमुरिमगेवज्जभंगो। असण्णि० मिच्छाइभिंगो। आहार० ओघं । णवरि सगुक्कस्सहिदी देसूणा । एवमंतराणुगमो समत्तो । *णाणाजीवेहि भंगविचओ। ६५७३. एदमहियारसंभालणसुत्नं सुगमं । * तत्थ अपदं । तं जहा—जो उकसियाए हिदीए विहत्तिो सो अणुक्कस्सियाए हिदीए ण होदि विहत्तिो । $ ५७४. कुदो ? उक्कस्सहिदीए समऊणुक्कस्सहिदियादिकालविसेसाणमभावादो। ६ ७२. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । किन्तु इतनी विशेषता है कि कापोतलेश्यामें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। पीतलेश्याका भंग सौधर्मके समान है। पद्मश्याका भंग सहस्रारके समान है। शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भंग उपरिमौवेयकके समान है। असंज्ञेयोंमें मिथ्याष्टिके समान भंग है । आहारकोंमें ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति होती है। इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। * अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका अधिकार है। ६५७३. यह सूत्र अधिकारके सम्हालनेके लिये आया है जो सुगम है । * इस विषयमें यह अर्थपद है। यथा-जो उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला है वह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला नहीं होता। ६५७४. शंका-उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला क्यों नहीं होता है ? समाधान-क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिमें एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति इत्यादि काल विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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