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________________ गा० २२ ] ट्ठिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्तीए भंगविचओ * सिया विहत्तिया च विहत्तित्र च । ९५७८. कुदो ? कहि वि काले तिहुणासेसजीवेसु कस्सहिदिविहत्तिएसु संते तत्थ एगजीवस्स उक्कस्सद्विदिविहत्तिदंसणादो । ३४७ * सिया विहत्तिया च विहत्तिया च । $ ५७९ कुदो ? अतेसु विहत्तिसु संतेसु तत्थ संखेज्जाणमसंखेज्जाणं वा उक्कस हिदिविहत्तिजीवाणं संभवुवलंभादो । ३। ९५८० एत्थ तिण्हमको किं कारणं द्वविदो । एवमेदे एत्थ तिण्णि चैव भंगा होंति त्ति जाणावणडौं । * कस्सियाए हिदीए सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । ९ ५८१. कुदो, उक्कस्सहिदिविहत्तिएहि विणा तिहुवणासेसजीवाणमशुक्कस्सहिदीए चेव अवद्विदाणं कम्हि वि काले उवलंभादो । * सिया विहत्तिया च विहत्तिओ च । * कदाचित् बहुत जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के अविभक्तिवाले होते हैं और एक जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला होता है । $ ५७८. शंका- ऐसा क्यों होता है ? समाधान - क्योंकि किसी भी कालमें तीन लोकके सब जीवोंके अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले रहते हुए उनमें से एक जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला देखा जाता है । * कदाचित् बहुत जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिप्रविभक्तिवाले होते हैं और बहुत जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं । ९ ५७६. शंका- ऐसा क्यों होता है ? समाधान - उत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले अनन्त जीवोंके रहते हुए उनमें कदाचित् संख्यात या असंख्यात जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले पाये जाते हैं । * ३ । ९ ५८० शंका- यहां पर तीनका अंक किसलिये रखा है। समाधान - इस प्रकार यहाँ पर ये तीन हो भंग होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये यहां पर तीनका अंक रखा है । * कदाचित् सब जीव मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं । ६ ५६१. शंका- ऐसा क्यों होता है ? समाधान- क्योंकि किसी भी कालमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवों के बिना तीन लोकके सब जीव अनुत्कृष्ट स्थिति में ही विद्यमान पाये जाते हैं । Jain Education International * कदाचित बहुत जीव मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं और एकजीव मिथ्यात्वक अनुत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाला होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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