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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए फोस ७३ $ १२६. सव्वविगलिंदिय० मोह० उक्क० लोग० असंखे० भागो । अक ० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । एवं पंचिदियअपज्ज० तसअपज्ज० वत्तव्वं । $ १२७. पंचिंदिय - पंचिदियपज्ज० - तस तसपज्ज० मोह० उक्क० ओघं । ऋणुक ० लोग० असंखे० भागो अचोदस भागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । एवं पंचमण०पंचवचि ० - इत्थि० - पुरिस० - विहंग० - चक्खु - सण्णिति । कुछ कम नौ बटे चौदह राजु बतलाया है। यहां तीसरी पृथिवीतक दो राजु और ऊपर सात राजु इस प्रकार नौ राजु लेना चाहिये । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, अतः इनका दोनों प्रकारका स्पर्श सब लोक कहा । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में यह व्यवस्था अविकल घटित हो जाती है इसलिये इनके स्पर्शको एकेन्द्रियों के समान कहा । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनका सब लोक स्पर्श मारणान्तिक और उपपादपदकी अपेक्षा ही जानना चाहिये। जो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त तथा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हीं के पहले समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । अब यदि इनके वर्तमान स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है और अतीत कालीन स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह सब लोक प्राप्त होता है । यही सबब है कि यहां उक्त मार्गणा में उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रभाग और अतीत कालीन स्पर्श सब लोक प्रमाण बतलाया जाना सम्भव है अतः उक्त मार्गणाओं में अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक कहा। यहां बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका सब लोक स्पर्श उपपाद और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा ही जानना चाहिये । पांचों सूक्ष्म स्थावर काय आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको उक्त प्रमाण कहा । $ १२६. सभी विकलेन्द्रिय जीवों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक और स लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके कहना चाहिये । विशेषार्थ - स - सब विकलेन्द्रियों में उत्कृष्ट स्थिति उन्हीं के होती है जो संज्ञी तिर्यंच और मनुष्यों में से कर यहाँ उत्पन्न होते हैं । अतः इनमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका दोनों प्रकारका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । तथा सब विकलेन्द्रियोंका वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अतीतकालीन स्पर्श सब लोक है अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका दोनों प्रकारका स्पर्श उक्तप्रमाण कहा है। यही व्यवस्था पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्तकों में बन जाती है अतः इनके कथनको सब विकलेन्द्रियोंके समान कहा । १२७. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवां भाग, त्रसनालोके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण और सब लोक है। इसी प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवों के जानना चाहिये । विशेषार्थ-पंचेन्द्रियादि चार मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श तीन प्रकारका बतलाया है । लोक असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्श वर्तमानकालकी अपेक्षासे बतलाया है, क्योंकि १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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