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________________ ७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ विदिविहत्ती ३ छचोहस भागा वा देभ्रूणा । उवरि खेत्तभंगो । एवं ओरालियमिस्स - वेडव्वियमिस्स - आहार - आहारमिस्स अवगद ० - अकसा०-मणपज्ज० - संजद ० - सामाइय-छेदो०- परिहार०सुहुम० - जहाक्खाद० - संजदे त्ति । १२५. एइंदिय० मोह० उक० के० खे० पो० ? लोग० असंखे० भागो णव चोदभागा वा देणो । अणुक० सव्वलोगो । एवं बादरेइंदिय - बादरेइंदियपज्ज० । मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त- - बादरे इंदियअपज्ज० मोह० उक्क० के० खे० पो० १ लोगस्स असंखे०भागो सव्वलोगो वा । अणुक्क० सव्वलोगो । एवं पंचकाय मुहुम-पज्जत्तापज्जताणं । है | अच्युत स्वर्गके ऊपर देवोंके स्पर्श उनके क्षेत्र के समान है । इसी प्रकार अर्थात् नौग्रेयक आदिके देवोंके समान औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसां परायिकसंयत और यथाख्यात संयत जीवोंके जानना चाहिये । विशेषार्थ - जीवट्ठाण आदिमें सामान्य देवोंका व भवनवासी आदि देवोंका जो वर्तमानकालीन व अतीतकालीन स्पर्श बतलाया है वही यहां उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट स्थितिवाले उक्त देवोंका स्पर्श जानना चाहिये जो मूलमें बतलाया ही है । अन्तर केवल आनतादिक चार कल्पोंके देवों में उत्कृष्ट स्थितिवालों के स्पर्श में है । बात यह है कि आनतादिक चार कल्पों में जो द्रव्यलिंगी मुनि उत्पन्न होते हैं उन्हींके पहले समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है और इनके अतीतकालीन स्पर्श कुछ कम छह बड़े चौदह राजु विहार आदिके समय प्राप्त होता है । इस प्रकार आनतादिकमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान व अतीत स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । मूलमें औदारिकमिश्र आदि मार्गणाओं में इसी प्रकार है यह बतलाया है सो इसका भाव यह है कि इन मागंणाओं में भी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श अपने अपने क्षेत्र के समान जानना चाहिये । उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । $ १२५. एकेन्द्रियों में मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये । सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार पांचों स्थावरकाय, पांचों स्थावरकाय सूक्ष्म, पांचों स्थावरकाय सूक्ष्म पर्याप्त और पांचों स्थावर काय सूक्ष्म अपर्याप्त जीवों के जानना चाहिये । विशेषार्थ - जिन देवोंने मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अनन्तर समय में मरकर एकेन्द्रिय पर्यायको प्राप्त किया उन्हीं एकेन्द्रियोंके पहले समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है, अतः इनका वर्तमानकालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीतकालीन स्पर्श Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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