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________________ ७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [हिदिविहत्ती ३ $ १२८. कायाणुवादेण पुढवि-बादरपुढवि०-बादरपुढविपज्ज-आउ०-बादरआउ०—बादरआउपज०-वणप्फदि-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदिपत्रेय. तस्सेव पज्ज. मोह० उक्क० एइंदियभंगो। अणुक्क० सव्वलोगो । णवरि तिण्हं पज्जत्ताणं मोह० अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । बादरपुढविअपज्ज०-बादर आउअपज्ज-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज्जा-वाउ०- बादरवाउ०-बादरवाउअपज्जा-बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज. मोह० उक्क० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि बादरपुढविअपज्ज० [-बादराउ अपज्ज०-] बादरतेउ अपज्जा[बादरवाउअपज्ज०- ] बादरवणप्फदिपत्रेयअपज्जत्ताणं सव्वलोगफोसणं णत्थि । अणुक्क० सव्वलोगो । बादरवाउ०पज्ज० मोह० उक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । अणुक० लोग० संखे भागो सव्वलोगो वा। बादरतेउ०पज्ज. मोह० उक्क० के० खे० पो ? लोग० असंखे०भागो । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । जितने क्षेत्रमें उक्त मार्गणावाले जीव निवास करते हैं। उनके वर्तमान क्षेत्रका प्रमाण लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक प्राप्त नहीं होता। कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्श विहारवत् स्वस्थान आदिकी अपेक्षासे कहा है, क्योंकि इन जीवोंके ये पद दो राजु नीचे और छह राजु ऊपर इस प्रकार आठ राजु क्षेत्रमें ही पाये जाते हैं। तथा सब लोक प्रमाण स्पर्श मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षासे कहा है । कुछ और मार्गणाएं हैं जिनमें उक्त व्यवस्था ही प्राप्त होती है । जैसे पांचों मनोयोगी आदि। ____ १२८. कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त,जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिकपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पयाप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन एकेन्द्रियों के समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन सब लोक है। इतनी विशेषता है कि उक्त तीन प्रकारके पर्याप्त जीवोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग और सब लोक है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिकं, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त,बादर जलकायिक अपर्याप्त,वादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंके सर्वलोक स्पर्शन नहीं है। तथा अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले उक्त जीवोंका स्पर्शन सब लोक है । बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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