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________________ गा० २२) द्विदिविहत्तीए उत्तरपयदिविदिअंतरं ६५४४. आदेसेण रइएसु मिच्छत्त-बारसक० उक० जह• अंतीमु०, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणुक्क० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणुक्क० एवं चेव । णवरि जह० एगस० । अणंताणु० चउक्क० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । पंचणोक० उक० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु । चत्तारिणोक० उक्क० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० आवलियाए असंखे०भागो एगा नुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा जीव यदि पुन: मिथ्यात्वमें आवे तो उसे मिथ्यात्वमें आनेके लिये कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल और अधिकसे अधिक कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर काल लगता है अतः अनन्तानुबन्धीकी अनुस्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर प्राप्त होता है। नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कष्ट काल अन्तर्मुहूते है, अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथा शेष चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक आवली है, अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एक आवलि है। यहाँ चार नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका एक आवलिप्रमाण जो उत्कृष्ट अन्तर बतलाया है वह चूर्णिसूत्रके उपदेशानुसार बतलाया है। परन्तु इस विषयमें उच्चारणामें दो उपदेश पाये जाते हैं। पहले उपदेशका सार यह है कि सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके हो चुकनेके दूसरे समयसे ही चार नोकषायोंका बन्ध होने लगता है। तथा दूसरे उपदेशका सार यह है कि सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके हो चुकनेके पश्चात् दूसरे समयसे चार नोकषायोंका बन्ध नहीं होता किन्तु जब आवलिका असंख्यातवां भाग काल शेष रह जाता है तब वहांसे बन्ध होता है। इनमेंसे पहले उपदेशके अनुसार चार नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कष्ट अन्तर एक आवलि प्राप्त होता है और दूसरे उपदेशके अनुसार आवलीका असंख्यातवां भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। अचक्षदर्शन और भव्यमार्गणा छद्मस्थ जीवोंके सर्वदा पाई जाती हैं, अतः इनमें ओधके समान सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर बन जाता है। ६५४४, आदेश निर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तेतीस सागर है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तेतीस सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर काल भी इसी प्रकार है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर काल एक समय है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी स्थिति प्रेमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। पाँच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रेमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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