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________________ ३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती । वलिया वा । एत्य उवएसं लद्ध ण एगयरणिण्णी काययो। पढमादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सगसगुक्कस्सहिदी देसूणा त्ति वत्तव्वं ।। ५४५. तिरिक्ख० मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि उक्क० अंतरं जह० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियह देसूणं । अणुक्क० एवं चेव । णवरि जह० एगस० । अणंताणु० चउक्क. उक्क० ओथं । अणुक्का अंतरं ज० एगस०, उक्क० तिण्ण पलिदो० देसूणाणि । पंचिंदियतिरिक्व-पंचिंतिरि०पज्ज०अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण अथवा एक आवली है । यहाँ पर उपदेशको प्राप्त करके किसी एकका निर्णय करना चाहिये। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। विशेषार्थ-जिसने नरकमें उत्पन्न होकर और पर्याप्त होकर मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया। अनन्तर जो अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता रहा किन्तु नरकसे निकलनेक पहले जिसने पुनः उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया उसके उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका कुछ कम तेतीस सागर उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये । जिसने नरकमें उत्पन्न होकर और अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी वह यदि नरकमें रहनेका काल अन्तर्मुहूते शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तो उसके अनन्तानुबन्धीकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है । जिसने पर्याप्त होकर और मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्त कालमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किया उसके सम्यक्त्व ग्रहण करनेके समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। अनन्तर जो नरकमें रहनेका काल अन्तर्मुहूत शेष रह जाने पर पुनः इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करता है उसके सम्यक्त्व और सम्याग्मथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है। जिस नारकीने नरकमें उत्पन्न हाकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलना करके अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर किया। अनन्तर नरकम रहनेका काल अन्तमुहूत शेष रह जाने पर जिसने उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः सम्यक्त्व और सम्याग्मथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका प्राप्त किया उसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है। तथा बारह कषायोंके समान नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर घटित कर लेना चाहिये। सब प्रकृतियोंकी शेष स्थितियोंका उत्कृष्ट और जघन्य अन्तर जो ओघमें बतला आये हैं उसी प्रकार जानना चाहिये। तथा प्रथमादि नरकाम अपने अपने नरककी विशेष स्थितिका ख्याल करके इसी प्रकार कथन करना चाहिये। ५४. तिचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुंहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर भी इसी प्रकार है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर एक समय है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य' है। पंचेन्द्रियतिथंच, पंचेन्द्रियतियच पर्याप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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