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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ मूलुच्चारणापाठों जह० एयसमओ त्ति । तत्थायमहिप्पाओ एइंदिएमु समयुत्तरमसण्णिहिदि सण्णिहिदिघादवसेण कादूण गदस्स पढमविग्गहे तदुवलंभसंभवो त्ति । उक्कस्सेण सगहिदी । ६७० मणुसतिय० मोह. जहण्णहिदी जहण्णुक्क० एगसमओ । अजह० जह. स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय है। इसका यह अभिप्राय है कि जो संज्ञी एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ और वहाँ उसने संज्ञीकी स्थितिका घात किया। अनंतर वह मरकर एक समय अधिक असंज्ञीके योग्य स्थितिके साथ उक्त चार प्रकारके तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ तो उसके पहले विग्रहमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा उक्त चारों प्रकारके तिर्यंचोंके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-जो एकेन्द्रिय दो मोड़ा लेकर पंचेन्द्रिय तियेचचतुष्कमें उत्पन्न होते हैं उनके पहले और दूसरे समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति सम्भव है अतः इनके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा। तथा इन दो समयोंको खुद्दाभवग्रहणप्रमाण अन्तर्मुहूर्त कालमें घटा देने पर जो दो समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण काल शेष रहता है वह पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल होता है। तथा जो दो समय कम अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है वह पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल होता है। इन 'चार प्रकारके तियचोंके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय होता है ऐसा मूलोच्चारणामें पाठ पाया जाता है सो उसका यह तात्पर्य है कि पहले कोई एक संज्ञी जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। अनन्तर उस एकेन्द्रियने संज्ञीकी स्थितिका घात किया और ऐसा करते हुए जब उसके असंज्ञीकी जघन्य स्थितिसे एक समय अधिक स्थिति शेष रह गई तब वह मरकर उक्त चार प्रकारके तियेंचोंमें उत्पन्न हो गया, इस प्रकार इन चारों प्रकारके तियचोंके पहले मोड़ेके समय अजघन्य स्थिति प्राप्त हो गई और स प्रकार अजघन्य स्थितिका भी एक समय काल बन जाता है। बात यह है कि एकेन्द्रियोंसे लेकर असंज्ञी तक जो जीव मर कर संज्ञियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके अनाहारक अवस्थामें असंज्ञीके योग्य स्थितिका ही बन्ध होता है । हाँ ऐसे जीवोंके शरीर ग्रहण करनेके समयसे लेकर संज्ञियोंके योग्य स्थितिका बन्ध होने लगता है। अतः ऐसे संज्ञी जीवोंके पहले और दूसरे मोड़ेमें असंज्ञियोंकी जघन्य स्थिति भी पाई जाती है और यही इनकी जघन्य स्थिति हो जाती है । अब यदि कोई जीव एक समय अधिक असंज्ञियोंकी जघन्य स्थितिके साथ संज्ञियोंमें उत्पन्न हुआ तो उसके पहले मोड़ेमें अजघन्य स्थिति ही कही जायगी। यही सबब है कि मूलोच्चारणामें उक्त चार प्रकारके तिर्यंचोंके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी माना है। तथा उक्त चार प्रकारके तिर्यंचोंमें जिसके जितनी कायस्थिति हो उतनी उनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये। किसके कितनी कायस्थिति है यह अन्यत्रसे जान लेना चाहिये। ७०. सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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