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________________ गा • २२] . द्विदिविहत्तीए कालो खुद्दाभवग्गृहणं अंतोमुहु, उक्क० सगहिदी । मणुसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो। ७१. देव० मोह० जहण्णहिदी जहएणुक० एगसमओ । अजह० जह• एगसमओ, उक्क० सगहिदी । भवण-वाण० मोह० जहण्णहिदी जहण्णुक्क० एयसमओ । अजह० जह• एयसमओ, उक्क. सगसगुक्कस्सहिदी। जोदिसियादि जाव सव्वह० त्ति जह हिदि० जहएणुक० एगसमओ। अजहण्ण० जहएणुक० जहएणुकस्सहिदी। स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल सामान्य मनुष्योंके खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और शेष दोके अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल पंचेन्द्रियतिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान जानना। विशेषार्थ-सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्यों के मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जो एक समय बतलाया है सो इसका खुलासा जिस प्रकार ओथप्ररूपणाके समय कर आये हैं उस प्रकार कर लेना चाहिये । तथा सामान्य मनुष्यका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और शेष दो प्रकारके मनुष्योंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल उक्त प्रमाण कहा। तथा अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट कायस्थितिप्रमाण होता है यह स्पष्ट ही है। इस विषयमें लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यकी स्थिति लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचके समान है, अतः इसके जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिचके समान कहा। ___७१. देवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी स्थितिप्रमाण है। भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल क्रमसे अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-जिस प्रकार सामान्य नारकियोंके मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार सामान्य देवोंके घटित कर लेना चाहिए। तथा भवनवासी और व्यन्तर देवोंके भी इसी प्रकार जानना । विशेष बात इतनी है कि इनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है, क्योंकि इतने काल तक उनके मोहकी अजघन्य स्थिति पाई जा सकती है। ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति भवके अन्तिम समयमें ही सम्भव है, अतः इनके जघन्य स्थितिका अघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। पर यह जघन्य स्थिति उत्कृष्ट आयुवालेके होती है और वह भी सबके नहीं अतः अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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