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________________ ३६ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए कालो ६८. तिरिक्ख० मोह० जहण्णहिदी ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अजहण्ण० ज० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। एवं मदि-सुदअण्णाण-असंजद०अभव०-मिच्छादि०-असण्णि त्ति वत्तव्वं । णवरि असण्णिवजिएसु अज · ज० अंतोमु । $ ६६. पंचिंदियतिरिक्रवचउक्कम्मि मोह० जहण्णहिदी जह० एगसमो, उक्क० बे समया। अजहण्ण. जह• खुद्दाभवग्गहणं विसमऊणं, अंतोमुहु विसमऊणं (एत्थ मुहूर्त होता है। तथा जघन्य स्थितिके बाद जो अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाता है वह अजघन्य स्थितिका जघन्यकाल है। तथा अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल सातवें नरककी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है, यह स्पष्ट ही है। ६८. तिथंच गतिमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्त मुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि असंज्ञियोंको छोड़कर शेष मत्यज्ञानी आदि जीवोंके अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ-तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति एकेन्द्रियोंके प्राप्त होती है और वह कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है, क्योंकि प्रत्येक स्थितिका जघन्य बन्धकाल एक समय और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। अतः इनके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। तथा जो तियंच जघन्य स्थितिके बाद एक समय तक अजघन्य स्थितिके साथ रहा और मरकर दूसरे समयमें अन्य गतिको प्राप्त हो गया उसके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । तथा तिर्यंच पर्यायमें मोहनीयकी अजघन्य स्थितिके साथ रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है, अतः इनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण कहा । यह जो ऊपर सामान्य तिर्यंचोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल कहा वह एकेन्द्रियोंकी प्रधानतासे और एकेन्द्रिय पर्यायके रहते हए मत्यज्ञान. ताज्ञान. असंयम. अभव्य, मिथ्याष्टि और असंज्ञी ये मार्गणाएँ सम्भव हैं ही अतः इनका कथन तिर्यंचोंके समान जानना। किंतु ऊपर अजघन्य स्थितिका जघन्यकाल जो एक समय कहा है वह असंज्ञी अवस्थामें ही प्राप्त होता है शेष मार्गणाओंमें नहीं, क्योंकि जो जीव जघन्य स्थितिके बाद एक समय तक अजघन्य स्थितिको प्राप्त हुआ और तदनन्तर मरकर अन्य गतिको प्राप्त हो जाता है इसके असंज्ञी मार्गणा तो बदल जाती है पर ऊपर कहीं हुई मार्गणाएँ नहीं बदलती अतः मत्यज्ञानी आदि उपर्युक्त शेष मार्गणाओंमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त जानना चाहिये । ६६. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, योनिमती और लब्ध्यपर्याप्त इन चार प्रकारके तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल दो समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल पंचेन्द्रिय तियच और लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रियतिथंचोंमें दो समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और शेष दो प्रकारके तिर्यंचोंमें दो समय कम अन्तमुहूर्त है। यहां मूलोच्चारणाका पाठ है कि उक्त चारों प्रकारके तिर्यंचोंके अजघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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