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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [द्विदिविहत्ती ३ . जह• एगसमो, उक्क० सगुक्कस्सहिदी । पढमाए ज० जहण्णुक्क० एगसमओ। अज. जह० एयसमओ, उक्क० सागरोवमं । विदियादि जाव छहि ति मोह० ज० जहण्णुक० एगसमओ । अजहण्ण० जहण्णेण जहण्णहिदी, उक्कस्सेण उक्स्सहिदी। सत्तमाए पुढवीए मोह० जहण्णहिदी जह० एगसमओ, उक्क, अंतोमु० । अजहण्ण० ज० अंतोसु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। पहले नरकमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक सागर है। दसरे नरकसे लेकर छठे नरक तक प्रत्येक नरकमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सातवें नरकमें मोहनं यकी जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल तेतीस सागर है । विशेषार्थ-जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव हजार सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंधमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण कम जघन्य स्थिति सत्कर्मको प्राप्त करके पुनः जघन्य स्थिति सत्त्व होनेके समय ही जघन्य स्थिति सत्त्वके समान स्थितिको बांधकर दो समय विग्रह करके नरकगति में उत्पन्न होता है और विग्रहमें असंज्ञी पंचेन्द्रियके जघन्य स्थिति सत्त्वसे हीन स्थितिका बंध करता है उसके दूसरे विग्रहके समय मोहनीयकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है,अतः नरकमें जघन्यस्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा। तथा ऐसे नारकीके पहले समयमें अजघन्य स्थिति रहती है अतः नरकमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा। तथा नरकमें अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल नरककी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है यह स्पष्ट ही है। सामान्य नारकियोंके समान पहले नरकमें भी मोहकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिये। पहले नरककी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरं है अतः यहां अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल एक सागर कहा । दूसरे नरकसे लेकर छठे नरक तकके नारकियोंके मोहकी जघन्य स्थितिका प्राप्त होना भवके अन्तिम समयमें ही सम्भव है अतः इनके जघन्य स्थिति का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । किन्तु यह जघन्य स्थिति अपने अपने नरककी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवके ही प्राप्त हो सकती है सो भी सबके नहीं, अतः अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अपने अपने नरककी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्टकाल अपने अपने नरककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा। सातवें नरकमें उत्कृष्ट आयुवाला जो नारकी पर्याप्ति पूर्ण करके अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर दूसरे अन्तमुहूर्तके द्वारा अनन्तानुबन्धी स्थितिसत्कर्मकी विसंयोजना कर जीवन भर सम्यक्त्वके साथ रहा और अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ पुनः मिथ्यात्वमें जितने काल तक शक्य हो उतने काल तक स्थिति सत्कर्मसे हीन बंध करके अगले समयमें सत्त्व स्थितिसे अधिक स्थिति बंध करेगा, उस जीवके जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है और जो सत्तामें स्थित स्थितिके समान स्थितिवाले कर्मका बंध करता रहता है उसके जघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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