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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww गा ० २२ ] हिदिविहत्तीए कालो ६६. जहण्णए पयदं दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० जह० के० ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अजहण्ण० अणादिओ अपज्जवसिदो अणादियो सपज्जवसिदो वा । एवमचक्खु०-भवसि० । सादिसपज्जवसिदभंगो अजहण्णस्स णत्थि; जहण्णहिदीदो चरिमसमयमुहुमसांपराइयखवयस्स अजहण्णहिदीए णिवायाभावादो। उवसंतकसाए मोहोदयवज्जिदे हेहा णिवदिदे अजहण्ण हिदीए सादित्तं किण्ण घेप्पदे ? ण, उवसंतकसाए वि मोह. अजहण्ण हिंदीए सब्भावुवलंभादो । ६७. आदेसेण णिरय. मोह. जह० जहएणुक्क० एगसमओ । अजहएण समयमें मरकर अनाहारक हो जाता है उसके आहारकके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है और उत्कृष्टकाल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी प्रमाण है। शेष कथन सुगम है । इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ। ६६. अब जघन्य कालानुगम प्रकरण प्राप्त है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थितिका कितना सत्त्वकाल है ? जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका सत्त्वकाल अनादि अनन्त और अनादि-सान्त है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिये। अजघन्य स्थितिका सादि-सान्त भंग नहीं है, क्योंकि क्षपक सूक्ष्मसांपरायिक जीवके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है और उससे जीवका अजघन्य स्थितिमें पतन नहीं होता। अर्थात् सामान्यसे मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्षपक सूक्ष्मसांपरायिक जीवके अन्तिम समयमें होती है और वह जीव तदनन्तर क्षीणमोह हो जाता है पुनः वह अजघन्य स्थितिमें लौटकर नहीं जाता है, अतः अजघन्य स्थितिका सादि-सान्त भंग नहीं है। शंका-मोहनीय कर्मके उदयसे रहित उपशान्तकषाय जीव जब नीचे दसवें गुणस्थानमें आता है तब उसके अजघन्य स्थितिका सादिपना क्यों नहीं लिया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि उपशान्तकषायमें भी मोहनीयकी अजघन्य स्थितिका सद्भाव पाया जाता है, अतः सामान्यकी अपेक्षा मोहनीयकी अजघन्य स्थितिमें सादि-सान्त भंग नहीं बनता। विशेषार्थ-क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें सूक्ष्म लोभका उदयरूप निषेक शेष रहता है जो उसी समय फल देकर निर्जीर्ण हो जाता है, अतः ओघसे मोहकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा पूरे मोहनीयका अभाव होकर पुनः उसका सद्भाव नहीं होता, अतः ओघसे मोहकी अजघन्य स्थितिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त ही होता है, सादि-सान्त नहीं। इनमें से अनादि-अनन्त काल अभव्योंकी अपेक्षा कहा और अनादि-सान्त काल भव्योंकी अपेक्षा कहा। यह अोघप्ररूपणा अचक्षदर्शनवाले और भव्योंके अविकल बन जाती है, अतः इनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा। यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि भव्योंके मोहकी अजघन्य स्थितिका अनादि-अनन्त विकल्प नहीं बनता। अथवा जो भव्य अभव्योंके समान हैं उनकी अपेक्षा यह विकल्प भव्योंके भी बन जाता है। ६७. आदेशसे नरकगतिमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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