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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ माणि सादिरेयाणि । एवं खइय० वत्तव्वं । ६५. सासण. मोह० उक्क. जहण्णुक्क० एगसमओ । अणुक्क० जह० एगसमो, उक्क छ आवलियाओ। सण्णि० पुरिसभंगो। असण्णि० एइंदियभंगो । आहारि० मोह० उक्क० ओघभंगो। अणुक्क० जह• एगसमओ, उक्क० सगहिदी । अणाहारि० कम्मइयभंगो। एवमुक्कस्सकालाणुगमो समत्तो । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल साधिक तेतीस सागर है। इसी प्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । विशेषार्थ-मरते समय यदि अशुभ लेश्या हो तो दूसरी पर्यायमें उत्पन्न होने पर अन्तर्मुहूर्त काल तक वही लेश्या बनी रहती है पर पीत और पद्म लेश्याकी यह बात नहीं, क्योंकि उक्त लेश्यावाला यदि कोई देव तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है तो उसके तिर्यंच पर्यायमें कापोत लेश्या हो जाती है, अतः तीन अशुभ लेश्याओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है। तथा पीत और पद्म लेश्यामें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय भी प्राप्त हो जाता है। जैसे किसी पीत या पद्म लेश्यावाले देवने आयुके उपान्त्य समयमें मोहनीयका उत्कृष्ट बंध किया और अन्तके एक समय में पीत तथा पद्म लेश्याके साथ अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला हो गया। फिर मरकर तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेसे लेश्या पलट गई । इस प्रकार पीत व पद्मलेश्यामें अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिका जघन्य काल एक समय होता है। शुक्ल लेश्याके तो पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अतः इसके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । लेश्याओंमें शेष कथन सुगम है। क्षायिकसम्यक्त्व की स्थिति शुक्ल लेश्याके समान है, अतः इसके कथनको शुक्ल लेश्याके समान कहा। इतनी विशेषता है कि शुक्ल लेश्याका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागर है और क्षायिक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तमुहूर्त कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय अपना अपना काल कहना चाहिये। ६५. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल छह आवली है। संज्ञी जीवोंके पुरुषवेदी जीवोंके समान जानना चाहिये। असंज्ञी जीवोंके एकेन्द्रियों के समान जानना चाहिए। आहारक जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी स्थितिप्रमाण है। अनाहारक जीवोंके कार्मण काययोगियोंके समान जानना चाहिये । . विशेषार्थ सासादनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह श्रावलि है, अतः इसके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल' छह आवलिप्रमाण प्राप्त होता है। किन्तु सासादनसम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट स्थिति पहले समयमें ही प्राप्त हो सकती है। अतः इसके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। जो आहारक उपान्त्य समयमें उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करके अन्त समयमें अनुत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करता है और तीसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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