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________________ vvvvv १२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज०-सुहुमतेउ०-मुहुमतेउपजत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउबादरवाउअपज्ज०-सुहुगवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपचेय-बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज०-वणप्फदि-णिगोद-कायजोगि०-ओरालि०-ओरालियमिस्सकम्मइय०-णवुस०-चत्तारिकसाय०-मदि-सुदअण्णाण०-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०-असएिण-आहारि०-अणाहारि० ति । २१६. आदेसेण णेरइएस भुज. अंतरं के ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अप्प०-अवहि० णत्थि अंतरं । एवं सत्तस पुढवीस सव्वपंचिंदियतिरिक्वमणुसतिय०-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय०बादरपुढविपज्ज-बादरभाउपज्ज०-बादरतेउपज्ज - बादरवाउपज्ज० - बादरवणप्फदिपत्यपज्ज०-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउब्धिय०-इत्थि०- पुरिस०-विहंगचक्खु०-तेउ०-पम्म०-सण्णि त्ति । ६२२०. मणुसअपज्ज- भुज-अप्प०-अवहि० अंतरं के० ? जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो. असंखे० भागो । एवं वेउव्वियभिस्स० । णवरि उक्क० बारस मुहुत्ता। कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, वनस्पति, निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायकाले, मत्यज्ञानी, श्रृंताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों के जानना चाहिये। २१६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य, पर्याप्त और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, वादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निका यिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। ६२२०. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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