SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए भुजगारे अंतर १२५ २२१. आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति अप्पद० णत्थि अतरं । एवमाभिणि-सुद०-ओहि०--मणपज०-संजद०--सामाइय-छेदो०--परिहार० - संजदासंजद०ओहिदंस०-मुक्कले०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०दिहि त्ति । $ २२२. आहार०-आहारमिस्स० अप्पद० अंतरं के० ? जह० एगसमो , उक्क. वासपुधत्तं । एवमकसाय-जहाक्खादसंजदे त्ति । अगद० अप्पद० जह० एगसमो, उक्क छम्मासा । एवं सुहुसांपरायसंजदे त्ति । उवसम० अप्पद० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० चउवीस अहोरत्ताणि । सासण-सम्मामि० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवमंतराणुगमो समत्तो। ६ २२५. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । ६२२२. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षप्रथक्त्व है। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये । अपगतवेदी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकालं एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंके जानना चाहिये। उपशमसम्यग्दृष्टि अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिनरात है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। विशेषार्थ-तीनों स्थितिवाले नाना जीव सर्वदा पाये जाते हैं, अतः ओघसे इनका अन्तर काल नहीं बनता। मार्गणाओं में कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें तीनों स्थितिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा। कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें भुजगारका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । यथा सामान्य नारकी आदि । इसका कारण यह है कि इनमें केवल भुजगार स्थिति ही सान्तर है फिर भी नाना जीवोंकी अपेक्षा उसका अन्तरकाल अन्तमुहूर्तसे अधिक नहीं प्राप्त होता। आगे मनुष्य अपर्याप्त आदि जितनी मार्गणाओंमें भुजगार आदि स्थितियोंके अन्तरकालका कथन किया है उनमें जिस मार्गणाका जितना अन्तर काल है उसमें सम्भव स्थितियोंका उतना अन्तरकाल जानना चाहिये। उदाहरण के लिये लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः इसमें भुजगार आदि तीनों स्थितियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें भी जानना चाहिए । इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy