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________________ १२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ $ २२३. भावाणुगमेण सव्वत्थ ओदइयो भावो । एवं भावाणुगमो समत्तो। २२४. अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ श्रोघेण सव्वत्थोवा भुज विहत्तिया। अवहि० असंखे०गुणो । अप्पद० संखे०गुणा । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वतिरिक्ख०-मणुस०-मणुसअपज्ज०-देव-भवणादि जाच सहस्सार०--सव्वएइंदिय--सव्व विगलिंदिय--सव्वपंचि०--पंचकाय--सव्वतस--पंचमणपंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-ओरालियमिस्स०-वेउव्विय०-वेउ०मिस्स०-कम्मइय०तिण्णिवेद०-चत्तारिकसाय-मदि-सुदणाण-विहंग०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-- पंचले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०-सण्णि०-असण्णि-श्राहारि-अणाहारि ति । ६ २२५. मणुसपज०-मणुसिणीसु सव्वत्थोवा भुज० । अवहि० संखे गुणा । अप्पद० संखे०गुणा। आणदादि जाव सबसिद्धि त्ति अप्पद. णत्थि अप्पाबहुगं। एममाहार०-आहारमिस्स०-अवगद०--अकसा०--आभिणि०--सद--श्रोहि-मणपज्ज०संजद०-समाइय-छेदो०-परिहार०-सुहमसांपराय०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंस०६२२३. भावानुगम की अपेक्षा सवत्र औदयिक भाव है। इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। ६२२४. अल्पबहुत्वानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें से ओघ की अपेक्षा भुजगारस्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोडे हैं। इनसे स्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिविभक्ति वाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियों के नारकी, सभी तिर्यंच, सामान्य मनुष्य, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियों से लेकर सहस्त्रार स्वर्ग तक के देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, पांचों स्थावर काय, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचन योगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्र काययोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादिष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों के जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि उक्त मार्गणाएं अनन्त और असंख्यात संख्यावाली हैं अतः इनमें उक्त क्रम बन जाता है। .६२२५. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। तात्पर्य यह है कि ये मार्गणाएँ संख्यात संख्यावाली है :सलिये इनमें उक्त क्रम ही घटित होता है । आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले देवोंका अल्पबहुत्व नहीं है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी अकषायी, आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंबत, संयतासंयत, अव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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