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________________ १३७ गा• २२ ] हिदिविहत्तीए पदणिक्खेवे समुक्कित्तणा सुक्क०-सम्मादिट्टी-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामिच्छादिहि त्ति । एवमप्पाबहुगाणुगमो समत्तो । एवं भुजगारविहत्ती समत्ता। . $ २२६. पदणिक्खेवे तत्थ इमाणि तिण्णि अणिोगद्दाराणि-समुकित्तणा सामित्त अप्पाबहुअं चेदि । समुक्कित्तणं दुविहं-जहण्णयं उक्कस्सयं चेदि । तत्थ उक्कस्से पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० अत्थि उक्कस्सिया वड्ढी उक्क. हाणी उक्कस्समरहाणं च । एवं सत्तसु पुडवीसु सबतिरिक्ख-सव्वमणुस-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-पंचकाय-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०-ओरालियमिस्स-वेउब्धिय-वेउ०मिस्स-कम्मइय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाणविहंग०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु-पंचले०-भवसि० -अभवसि० --मिच्छादि०सण्णि-असण्णि-आहारि०-अणाहारि त्ति । २२७. आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति अत्थि उक्कस्सिया हाणि । एवमाहार-[आहार मिस्स०-अवगद०-अकसा०-आभिणि-मुद०-ओहि०-मणपज्जव.. अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें एक अल्पतर स्थिति पाई जाती है इसलिये इनमें अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता। इस प्रकार अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ। इस प्रकार भुजगार विभक्ति समाप्त हुई । ६२२६. अब पदनिक्षेपका कथन अवसर प्राप्त है। उसके विषयमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना दो प्रकार की है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीय स्थितिविभक्तिकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी तिर्यंच, सभी मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सभी पांचों स्थावरकाय, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। ६२२७. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीय स्थितिविभक्तिकी उत्कृष्ट हानि है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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