SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती संजद०- सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंससुक्कले०-सम्मादि०-खइय०-वेदय-उवसम०-सासण-सम्मामि० । एवमुक्कस्ससमुक्कित्तणाणुगमो समत्तो। ६ २२८. जहण्णए पयदं। दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण मोह० अत्थि जहण्णवड्ढी जहण्णहाणी जहण्णमवहाणं च । एवं सव्वणिरयसव्यतिरिक्व-सव्वमणुस-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्यएइंदिय-सव्वविगलिंदियसव्वपंचिंदिय-पंचकाय-सव्वतस०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगी-ओरालिय०-औरालियमिस्स-वेउव्विय-वेउ०मिस्स-कम्मइय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-विहंगअसंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०-सण्णि- असण्णिश्राहारि०-अणाहारि त्ति । २२६. आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति अत्थि जह० हाणी । एवमाहार०. आहारमिस्स-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज -संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार०-मुहुमसांप०-जहाक्खाद-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सुक्क०-सम्मादिही-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि० । छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। इस प्रकार उत्कृष्ट समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ। ६२२८. अब जघन्य समुत्कीर्तनानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीय स्थितिविभक्तिकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान है। इसी प्रकार सभी नारकी, सभी तियच, सभी मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सभी पांचों स्थावरकाय, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी असंयत चक्षदर्शनवाले अचक्षदर्शनवाले, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। ६२२६. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मोहनीय स्थितिविभक्तिकी जघन्य हानि है । इसी प्रकार आहारककाययोगी. आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्याहाष्ट जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-जहाँ स्थितिकी वृद्धि और हानिके अनेक विकल्प सम्भव हैं वहाँ जब बन्ध या सक्रिय द्वारा सबसे अधिक बढ़ाकर स्थिति प्राप्त होती है तब उत्कृष्ट वृद्धि कहलाती है । तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy