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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिबिहत्ती ३ * ४५. देसेण निरयगईए णेरइएस मोह० उक्क० केवचि ० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अणुक० केवचिरं० ? जह० एगसमझो, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि । पढमादि जाव सत्तमित्ति मोह० उक्क० केवचिरं० ? जह० एयसमत्रो, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक० जह० एयसमत्रो, उक्क० एक्क० तिष्णि० सत्त० दस० सत्तारस० बावीस ० तेत्तीस सागरोवमाणि । २६ ० $ ४६. तिरिक्ख • मोह ० उक्क० केव० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतो मुहुत्तं । अणुक्क ० के ० ६० १ जह० एगसमग्र, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं काय जोगि०-णर्बुस ० वत्तव्वं । विशेषार्थ_मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य बन्धकाल एक समय और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त होनेसे उत्कृष्ट स्थिति सत्त्वका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त कहा है । उत्कृष्ट स्थिति बन्धकी व्युच्छित्ति होने पर पुनः उसका बन्ध कमसे कम अन्त मुहूर्त काल के बाद ही होता है । इस बीच अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने लगता है और सत्त्व भी अधःस्तन स्थिति गलना के द्वारा उत्तरोत्तर न्यून होता जाता है इसलिए अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्यायका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल होनेसे इस काल में अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्व रहता है, इसलिए अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वका उत्कृष्ट काल अनन्तकाल कहा है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए इनकी प्ररूपणा ओघके समान कही है । $ ४५. आदेशकी अपेक्षा नरकगति में नारकियों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है । मोहनीय की अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल तेतीस सागर है । पहली पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तकके प्रत्येक नरक में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेतीस सागर है । -- विशेषार्थ – यहां सर्वत्र मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल क्रमशः एक समय और अन्तर्मुहूर्त ओघके समान घटित कर लेना चाहिए। नरकमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय निम्न प्रकार होता है - जिस नारकीने भवके उपान्त्य समय में उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर अन्तिम समय में अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधा है और तीसरे समय में मरकर जो अन्य पर्यायको प्राप्त हो गया उसके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । शेष कथन स्पष्ट ही है । $ ४६. तिर्यंचों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सवकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है। मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल है जो असंख्यात् पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । इसी प्रकार काययोगी और नपुंसकवेदी जीवोंके कहना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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