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________________ गा ० २२ ] ganate कालो $ ४७. पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि मोह० उक्क० केव० ? जह० एगसमत्रों, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक्क० केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० सगसगुक्कसहिदी। एवं मणुसतियस्स । $ ४८. पंचिं ० तिरिक्ख पज्ज० मोह० उक्क० केव० ? जहण्णुक्क० एगसम । अणुक्क० केव० ? जह० खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं मणुस - अपज्ज० । २७ विशेषार्थ - तिर्यंचों में अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिए | तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल ओघ के समान घटित कर लेना चाहिये । जब कोई जीव असंख्यात पुद्गल परिवर्तनकाल तक एकेन्द्रिय पर्यायमें निरन्तर रहता है तब उसके काययोग और नपुंसकवेद ही होता है अतः काययोग और नपुंसकवेद में भी मोहनी की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल तिर्यंचोंके समान बन जाता है । शेष कथन सुगम है। ४७. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और योनिमती तिर्यंचों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्यों के जानना चाहिये । विशेषार्थ- उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एकसमय नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । इनका खुलासा हम पहले कर ही आये हैं । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि किसी भी तिर्यंचके अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति के भीतर मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध न हो यह सम्भव है । यहां स्थिति से कार्यस्थिति का ग्रहण करना चाहिये । इसी प्रकार अन्यत्र भी जहां भवस्थितिसे काय स्थिति अधिक हो वहां भी स्थिति पद कार्यस्थितिका ही ग्रहण करना चाहिये । उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंकी कार्यस्थिति क्रमसे पंचानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य, संतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य और पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य होती है । सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनीके भी इसी प्रकार जानना चाहिए | इनकी काय स्थिति क्रमशः सैंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य, तेईस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य और सात पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य होती है । ४८. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों एक समय है । मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य के जानना चाहिए । विशेषार्थ – पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकों के बन्धसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती नहीं । हां जिसने संज्ञी पर्याप्त अवस्थामं मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया और वह स्थितिघात न करके अन्तमुहूर्त कालके होनेपर मरकर उक्त जात्रोंमें उत्पन्न हो गया तो उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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