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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ४९६. देवेमु णिरोघं । भवणादि जाव सहस्सार त्ति एवं चेव । णवरि अप्पप्पणो उक्कस्सहिदी वत्तव्वा । आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे ति मिच्छत्तबारसक०-णवणोक० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० जह० सगसगजहण्णाउअं समऊणं, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी । अणंताणबंधिचउक्क० उक्क० जहएणुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० अंतोमु० एयसमो वा, उक्क. सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगसमओ। [ अणुक्क० जह० एगससओ.] उक्क० सगहिदी । अणु दिसादि जाव सव त्ति मिच्छत्त-सम्मामि०-बारसक-रणवणोक० उक्क. जहण्णुक्क० एगसमझो। अणुक्क० जह० जहण्णहिदीए समयूणा, उक्क० उक्कस्सहिदी। सम्मत्त. उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० सगहि । अणंताणु०चउक्क० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० जह०अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । ४६६ देवोमें सामान्य नारकियोंके समान कथन है। भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्बत्र अनुकृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। आनत कल्पसे लेकर उवरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सम्यक्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नौकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अनत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम जघन्य स्थिति प्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-सामान्य देव तथा भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सब कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल सामान्य नारकियोंके समान है, किन्तु अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय अपने-अपने कल्पकी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये । आनतसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें भवके पहले समयमें ही मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अतः उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम अपने-अपने कल्पकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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