SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिकालो २७६ ९ ४९७. इंदियाणुवादे एइंदिएसु मिच्छत - सोलसक० उक्क० जहण्णुक्क • समओ | अणुक्क० ज० खुद्दा भवग्गहणं, उक्क ० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । णवणोक० उक्क० ज० एगस०, उक्क० आवलिया । अणुक्क ० ज० एयस०, उक्क० अणतकालमसंखे० पो० परियट्टा । सम्मत्त ० - सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क ० एगसमओ | अणुक्क० ज० एयस०, असंखे॰भागो । एवं बादरेइंदियाणं । वरि अणुक्कस्सुक्कस्समं गुलस्स उक्क० पलिदो ० असंखेज्जदि जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्ध चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थिति भी भवके पहले समय में हो सकती है अतः इनकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इन प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है, क्योंकि जो अनुत्कृष्ट स्थिति के साथ अनादि कल्पों में उत्पन्न होता है । वह यदि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी ना नहीं करता है और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता है तो उसके जीवन भनी अनुत्कृष्ट स्थिति बनी रहती है । तथा जो जीव आनतादिकोंमें पैदा हुआ और पर्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर ली उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । तथा अनन्तानुबन्धीकी वियोजना किया हुआ कोई एक देव सासादनमें आया और दूसरे समयमें मरकर अन्य गतिमें चला गया तो उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय क्रमसे उद्वेलना और कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा घटित कर लेना चाहिये । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अतः इनमें अनन्तानुबन्ध और सम्यक्त्व अनुत्कृष्ट स्थिति के जघन्य कालके कथनमें कुछ विशेषता है । शेष कथन पूर्ववत् ही जानना चाहिये । बात यह है कि यहाँ अनन्तानुबन्धीकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय नहीं बनता केवल भवके प्रारम्भ में जिसने अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर ली है। उसके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त ही पाया जाता है । तथा जो कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि अनुदिशादिकमें उत्पन्न हुआ और एक समयतक सम्यक्त्व प्रकृति के साथ रहकर दूसरे समयमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो गया उसके सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । तथा यहाँ सम्यग्मिथ्यात्व के कालका कथन मिथ्यात्व आदिके साथ करना चाहिये, क्योंकि यहाँ इस प्रकृतिकी उद्वेलना सम्भव नहीं है । ९ ४६७. इन्द्रियमाणा के अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें मिध्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । नौ नोकषायों की उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवली प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रेमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रियोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy