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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियपोसण ३८५ बादरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-मुहुमवणप्फदि-मुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-कम्मइयअणाहारि त्ति । णवरि कम्मइय०-अणाहारीसु सम्मत्तस्स तिरिक्खोघं । सबविगलिंदियपंचिंदियअपज्ज-०तसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो । बादरपुढविपज्ज.. बादराउपज्ज०-यादरतेउपज --बादरवाउपज्ज --बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्ज०तसअपज्जत्तभंगो । णवरि बादरवाउपज. छव्वीसपय० ज० अज० लोग० संखे०भागो सव्वलोगो वा । ६६४२. पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज० तेवीसपयडी० ज० खेत्तं, अज० अणुक्क भंगो। सम्मामि० ओघं । अणंताणु० चउक्क० ज० देवोघं । अज० अणुक्क भंगो । एवं तसकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, सभीनिगोद, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारकोंमें सम्यक्त्वका भंग सामान्य तियचोंके समान है। सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और उस अपर्याप्त जीवोंमें पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंके समान भंग है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवों में बस अपर्याप्त जीवोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीव सर्वत्र पाये जाते हैं इसलिये इनका स्पर्श सब लोक बतलाया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है सो इसका खुलासा जिस प्रकार पहले कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये। पृथिवीकायिक आदि मागणाओंमें एकेन्द्रियोंके समान स्पर्श बन जाता है, इसलिये उनके कथनको एकेन्द्रियोंके समान कहा है। किन्तु कामणकायोगी और अनाहारकोंमें कृ कृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होते हैं अतः उनमें सम्यक्त्वका स्पर्श सामान्य तिथंचोंके समान बन जाता है। पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंके कारण स्पर्शमें जो विशेषता प्राप्त होती है वही विशेषता सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंमें भी प्राप्त होती है इसलिये यहां इनके स्पर्शको पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान बतलाया है । इसी प्रकार बादर पृथिवी पर्याप्त आदिमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंके स्पर्शको त्रस अपर्याप्तकोंके समान बतलानेका कारण जान लेना चाहिये। किन्तु बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंका स्पर्श लोकके संख्यातवें भागप्रमाण व सब लोक होनेसे इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पशे उक्त प्रमाण बतलाया है। ६६४२. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त जीवोंमें तेईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिका भंग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग श्रोधके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श सामान्य देवोंके समान है । तथा अजघन्य स्थितिका भंग अनुत्कृष्टके समान है। ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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