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________________ wwraam amarorammam ११२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिबिहत्ती३ वादरपुढवि०-बादरपुढवि०अपज ०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपञ्जत्तापज्जत्त-आउ०-बोदर आउ०-बादरभाउअपज्ज०-सुहुमाउ०-मुहुमाउपजत्तापज्जत्त--तेउ०-बादरतेउ० [-बादरतेउ०] अपज्ज-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-सहुमवाउ०-सहुमवाउ०पज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०तस्सेव अप्पज्ज०सबवणप्फदि०-सव्याणिगोद०-कायजोगि-ओरालिय० -ओरालियमिस्स०-कम्मइय०णवंस०-चत्तारिक०-मदि-सदारणाण-असंजद०--अचक्खु०-तिएणलेस्सिय-भव०अभव० - मिच्छादि०-असण्णि०-आहारि-अणाहारि त्ति ।। ६ १६६. श्रादेसेण णेरइएसु अप्पद० अवहिणियमा अत्थि । भुज० भजियव्वं सिया एदे च भुजगारविहत्तिश्रो च । सिया एदे च भुजगारविहत्तिया च २ । धुवे पक्खित्वं तिण्णि भंगा । एवं सत्तमु पुढवीसु सव्वपंचिंतिरि०-मणुसतिय०-देव०-भवगादि-जाव सहस्सार०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढवीपज्ज-बादराउपज्ज०-बादरतेउपज०-बादरवाउपज्ज-बादरवणप्फदिपत्त यपज्जा-सव्वतस०-पंचमण०पंचवचि०-वउव्विय-इत्थि०-पुरिस-विहंग०-चक्खु०-तेउ०-पम्म०-सण्णि त्ति । जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक. बादर प्रथिवीकायिक अपर्याप्त. सक्षम प्रथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादरजलकायिंक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। 8 १६६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। तथा भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव भजनीय हैं। (१) कदाचित् बहुत अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव होते हैं और एक भुजगार स्थितिविभक्तिवाला जीव होता है। (२) कदाचित् बहुत अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव होते हैं और बहुत भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवं होते हैं। इन दोनों भंगोंको ध्र व भंगमें मिला देनेपर तीन भंग होते हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, सामान्य, पर्याप्त और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादरजलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पतिलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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