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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए भुजगारे भंगविचओ १११ अंतरं। अवहि० जहण्णुक्क० एगसमओ । एवमणाहारि० । ___ १६३. वेदाणुवादेण इत्थि० भुज०-अवडि० जह० एगसमो, उक्क० पणवण्ण पलिदोवमाणि देमणाणि । अप्प० ओघं । णस० भज०-अवहि० जह• एगसमो, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अप्पद० ओघं । एवमसंजद० । ___$ १६४. चत्तारिकसाय० मणजोगिभंगो । मदिअण्णाण-सुदअण्णाण भुज-अवहि ० ज० एगसमओ, उक्क. एक्कत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अप्पद० ओघं । विहंग० भज०-अहि० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अप्पद० ओघं । पंचले० भुज०-अवहि० ज० एगसमो, उक्क० सगहिदी देमूणा । अप्पद० अोघं । अभव-मिच्छादि० मदिअण्णाणिभंगो। असण्णि ० कायजोगिभंगो । एवमंतराणुगमो समत्तो । $ १६५. णाणाजीवहिं भंगविचयाणुगमेण दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण भुज० अप्प० अवहिणियमा अत्थि । एवं तिरिक्व-सव्वएइंदिय-पुढवि०काययोगी जीवोंके भुजगार और अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। तथा अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। १६३. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थिति विभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्य है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अोधके समान है। नपुंसकवेदी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अोधके समान है। इसी प्रकार असंयत जीवोंके जानना चाहिये। ६१६४. चारों कषायवाले जीवोंके मनोयोगी जीवोंके समान जानना चाहिये। मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। विभंगज्ञानी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्महूर्त है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। कृष्ण आदि पाँच लेश्यावाले जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अओघके समान है। अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके मत्यज्ञानी जीवोंके समान जानना चाहिए। तथा असंज्ञी जीबोंके काययोगी जीवोंके समान जानना चाहिये। इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। $ १६५. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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