SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ १६२. सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज. पंचिं०तिरिक्खअपजत्तभंगो। पंचकाय०-तसअपज ०-पंचमण०-पंचवचि०-ओरालि-वेउन्चिय० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। एवमोरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स० वत्तव्यं । कायजोगि० भज०-अवहि० ज० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। अप्पद० ज० एगसमो, उक्क० अंतोमुहु। आहार-आहारमिस्स० अप्पद० ण त्थि अंतरं । एवमवगद०-अकसा०-आभिणि सुद०-ओहि-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद-संजदासंजद०--मोहिदंस०-सुक्क०सम्मादि-खइय०वेदय०-उवसम-सम्मामि०-सासण दिहि त्ति । कम्मइय० भज०-अप्पद० णत्थि आये हैं अतः इनके भुजगार और अवस्थित स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकाटि पृथक्त्वप्रमाण कहा है। कोई संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर मरा और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हुआ और सेंतालीस पूर्वकोटि तक पंचेन्द्रिय असंज्ञियोंमें भ्रमणकर फिर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च हो गया। इस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें भुजगार और अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर सैंतालीस पूर्वकोटि होता है। क्योंकि जिस असंज्ञी जीवके संज्ञी पंचेन्द्रियकी स्थितिका सत्त्व होता है उसको घटानेके लिए संतालीस पूर्वकोटिसे भी अधिक काल चाहिये परन्तु असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में भ्रमण करनेका उत्कृष्टकाल सेतालीस पूर्वकोटि है अतः उक्त काल कहा। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें पन्द्रह पूर्वकोटि और योनिमतिमें सात पूर्वकोटि कहना चाहिए । मनुष्यमें असंज्ञी नहीं होते अतः उनमें सम्यक्त्वकी अपेक्षा कुछ कम पूर्वकोटि काल कहा है मनुष्य त्रिकके यद्यपि अल्पतरका उत्कृष्टकाल साधिक तीन पल्य बतलाया है पर वह इनके भुजगार और अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर नहीं हो सकता। आपत्ति वही आती है जिसका पहले उल्लेख कर आये हैं। अतः इनके भुजगार और अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण जानना चाहिये । कुछ कमसे यहाँ प्रारम्भके आठ वर्पका और अन्तके अन्तमुहूर्त कालका ग्रहण किया है। देवोंमें यद्यपि अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर बतलाया है। पर भुजगार और अवस्थित स्थितियाँ सहस्रार स्वर्गतक ही होती हैं और सहस्रार कल्पकी उत्कृष्ट स्थिति साधिक अठारह सागर है, अतः इनके भजगार और अवस्थित का उत्कृष्ट अन्तरं साधिक अठारह सागर कहा । शेष कथन सुगम है। १६२. सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपयोतकोंके समान जानना चाहिये। पाँचों स्थावरकाय, त्रसअपर्याप्तक, पाँचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी,औदारिककाययोगी और वैक्रियिककाययोगी जीवोंके पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके कहना चाहिये । काययोगी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रेमाण है। तथा अल्पतर स्थिति न्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तम हर्त है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकपायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत.सामायिकसंयत छेदोपस्थापनासंयत.परिहारविशद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यात संयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिये। कार्मण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy