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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए भुजगारे अंतरं
१०६ $ १६०. तिरिक्व० भुज-अवट्टि ० जह० एगसमो, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अप्प० ओघं । पंचिंतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्ज-पंचिं०तिरि० जोणिणी० भुज०-अवहि० ज० एगसमो, उक्क० पुव्वकोडिपुधनं । अप्पद० अोघं । पंचिंतिरि०अपज्ज० भज-अप्प -अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज्ज० । मणुसतिय० भुज०-अवहि० ज० एगसमो, उक्क० पुव्वकोडी देमणा । अप्पद० ओघं ।
___$ १६१. देवेसु भुज०-अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० अहारस सागरो० सादिरेयाणि । अप्प० ओघ । भवणादि जाव सहस्सार त्ति भुज०-अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० सगहिदी देसूणा । अप्प० अोघं० । आणदादि जाव सव्वहेत्ति अप्प० णत्थि अंतरं ।
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१६०. तिथंचोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिये । सामान्य मनुष्य,पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यिनियोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविमक्तिका अन्तरकाल अोधके समान है।
१६१. देवोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अोधके समान है। भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अोधके समान है। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ--सामान्य तिर्यञ्च के अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक तीन पल्य बतला आये हैं। पर जिस तिर्यश्चके यह काल प्राप्त होता है उसके तियंञ्च पर्यायके रहते हुए पुनः भुजगार और अवस्थित स्थिति नहीं प्राप्त होती, क्योंकि वह जीव तियंञ्चसम्बन्धी अल्पतर स्थितिके कालको समाप्त करके देवपर्यायमें चला जाता है, अतः एकेन्द्रियोंमें जो अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल बतलाया है वह सामान्य तिर्यञ्चके भुजगार और अवस्थितस्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । तिर्यश्च त्रिकके अल्पतर स्थितिका जो साधिक तीन पल्य उत्कृष्टकाल बतलाया है उसे इनके भुजगार और अवस्थित स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल माननेपर वही आपत्ति खड़ी होती है जो सामान्य तिर्यश्चोंके उक्त स्थितियोंके अन्तरकालका स्पष्टीकरण करते समय बतला
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