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________________ auravsanawaranwar जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ अवहि. मोरालियमिस्सभंगो । अप्पदर० ज० एयसमओ, उक्क० ओघभंगो । अणाहार० कम्मइयभंगो। एवं कालाणुगमो समत्तो । १८८. अंतराणुगमेण दुविहो णि सो-प्रोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह. भुज-अवढि० अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जह० एगसमओ, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि अंतीमुहुत्तब्भहिएहि सादिरेयं । अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० अतोमुहु । एवं पंचिंदिय-पंचि०पज्ज०-तस-तसपज्ज०पुरिस०-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि.-सण्णि०-आहारि त्ति। १८६. आदेसेण णेरइएसु भुज० अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अप्पद० ओघं । पढमादि जाव सत्तमि त्ति भुज०-अवहि० अंतरं ज० एगसमो, उक्क० सगहिदी देसूणा । अप्पद० ओघं। है। तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल एकेन्द्रियोंके समान है। आहारक जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल ओघके समान है। अनाहारक जीवोंके कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। ६१८८.अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त अधिक एकसौ वेसठ सागर है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पुरुषवेदी, चक्षदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। विशेषाथे--एक कालमें एक जीवके भुजगार आदि स्थितियोंमेंसे कोई एक ही स्थिति होगी और इन तीनोंका जघन्यकाल एक समय है अतः जघन्य अन्तर भी इतना ही प्राप्त होता है। तथा अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तमुहर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है और उस समय अन्य दो स्थितियोंका पाया जाना सम्भव नहीं, अतः भुजगार और अवस्थित स्थितिका अन्तरकाल अल्पतरस्थितिके उत्कृष्टकाल प्रमाण कहा। तथा अवस्थितका उत्कृष्टकाल अन्तमुहर्त है, अतः अल्पतरका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहतं कहा। पंचेन्द्रिय आदि कुछ छ मार्गणाओंमें यह अन्तरकाल बन जाता है अतः उनके कथनको ओधके समान कहा। १८६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक नरकमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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