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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिसामित्त ति वत्तव्वं ? ण, एगसमयकालडिदिए णिसेगे संते विदियसमए चेव तस्स णिसेगस्स . अदिण्णफलस्स अकम्मसरूवेण परिणामप्पसंगादो । ण च कम्म सगसरूवेण परसरूवेण वा अदत्तफलमकम्मभावं गच्छदि, विरोहादो। एगसमयं सगसरूवेणच्छिय विदियसमए परपयडिसरूवेणच्छिय तदियसमए अकम्मभावंगच्छदि त्ति दुसमयकालहिदिणिद्देसोकदो। * अणंताणुबंधीणं जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ४३१. सुगममेदं । * ताणुबंधी जेण विसंजोइदं आवलिय पविट्ठ दुसमयकालहिदिगं सेसं तस्स। समाधान-नहीं, क्योंकि इस निषेकको यदि एक समय काल प्रमाण स्थितिवाला मान लेते हैं तो दूसरे ही समयमें उसे फल न देकर अकर्मरूपसे परिणमन करनेका प्रसंग प्राप्त होता है। और कर्म स्वरूपसे या पररूपसे फल बिना दिये अकर्मभावको प्राप्त होते नहीं, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। किन्तु अनुदय रूप प्रकृतियोंके प्रत्येक निषेक एक समय तक स्वरूपसे रहकर और दूसरे समयमें पर प्रकृतिरूपसे रहकर तीसरे समयमें अकर्मभावको प्राप्त होते हैं ऐसा नियम है अतः सूत्रमें दो समय कालप्रमाण स्थितिका निर्देश किया है। विशेषार्थ-यहां यह शंका उठाई गई है कि जिस कर्मका स्वोदयसे क्षय नहीं होता उसका अन्तिम निषेक उपान्त्य समयमें ही पर प्रकृतिरूप हो जाता है, अतः अनुदयरूप प्रकृतिकी जघन्य स्थिति एक समय ही कहनी चाहिये। इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यद्यपि ऐसा निषेक उपान्त्य समयमें ही परप्रकृतिरूप हो जाता है पर वह कर्मरूपसे दो समय तक रहता है और तीसरे समयमें ही अकर्मभावको प्राप्त होता है, अतः उस निषेककी जघन्य स्थिति दो समय कहना ही युक्त है । यदि उसकी स्थिति एक समय मानी जाती है तो दूसरे समयमें बिना फल दिये उसे अकर्मरूप हो जाना चाहिये। पर ऐसा होता नहीं, क्योंकि कोई भी कर्म फल दिये बिना अकर्मरूप होता नहीं और उपान्त्य समय उसका उदयकाल नहीं है, अतः उपान्त्य समयमें वह फल दे नहीं सकता । इसलिये यही निश्चित होता है कि जो निषेक जितने काल तक कर्मरूपसे रहता है उसकी उतनी स्थिति होती है। स्थितिका विचार करते समय यह नहीं देखा जाता कि वह अमक समयमें अन्य प्रकृतिरूप होनेवाला है इसलिये इसकी स्थिति अन्य प्रकृतिरूप होनेसे पहले तक हो। किन्तु जिस समय जिस कर्मकी जितनी स्थिति कही जाती है उस समय उस कर्मरूप परणमे निषेकोंके सद्भावकालको देख कर ही वह स्थिति कही जाती है। अब यदि वे निषेक उसी समय या अन्य समयमें अन्य प्रकृतिरूप होते हों तो हो जायं, इससे उस कर्मकी स्थितिका कथन करने में कोई बाधा नहीं आती। ॐ अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ६४३१ यह सूत्र सुगम है। * जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है और तदनन्तर उदयावलीमें प्रविष्ट होकर जब उसकी दो समय काल प्रमाण स्थिति शेष रहती है तब उसकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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