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________________ २४४ अवधवलासहिदे कसायपाहुडे. [हिदविहत्ती ३ * सम्मामिच्छत्तस्स जहरणहिदिविहत्ती कस्स ? ४२६. सुगममेदं । । * सम्माभिच्छत्तं खविज्जमाणं वा उव्वेल्लिज्जमाणं वा जस्स दुसमयकालहिदियं सेसं तस्स । ६४३०.खवेंतस्स वा उव्वेल्लंतस्स वा जस्स दुसमयकालहिदियं सम्मामिच्छ सेसं तस्सेव जीवस्स जहण्णसामि होदि ति वयणेण सेससम्मामिच्छत्तसंतकम्मियाणं पडिसेहो कदो । एवकारेण विणा कधमेसो णियमो अवगम्मदे ? ण एस दोसो, एवकाराभावे वि तदहो तत्थ अत्थि त्ति सावहारणअवगमुप्पत्तीए विरोहाभावादो । एगसमयकालडिदियमिदि किण्ण वुच्चदे ? ण, उदयाभावेण उदयणिसेयहिदी परसरूवेण गदाए विदियणिसेयस्स दुसमयकालहिदियस्स एगसमयावहाणविरोहादो। विदियणिसेओ सम्मामिच्छत्तसरूवेण एगसमयं चेव अच्छदि उवरिमसमए मिच्छत्तस्स सम्मत्तस्स वा उदयणिसेयसरूवेण परिणामुवलंभादो। तदो एयसमयकालहिदिसेसं * सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ६ ४२६ यह सूत्र सुगम है। ॐ जिसके क्षयको प्राप्त होते हुए व उद्देलनाको प्राप्त होते हुए सम्यग्मिथ्यात्वकी दो समय काल प्रमाण स्थिति शेष रहती है उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। ६४३० क्षय करनेवाले या उद्वेलना करनेवाले जिस जीवके दो समय काल स्थिति प्रमाण सम्यग्मिथ्यात्व शेष रहता है उसी जीवके जघन्य स्वामित्व होता है। इस वचनके द्वारा शेष सम्यग्मिथ्यात्य सत्कर्मवाले जीवोंका प्रतिषेध कर दिया है। शंका-एवकारके बिना यह नियम कैसे जाना जाता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि एवकारके नहीं रहने पर भी एवकार शब्दका अर्थ सूत्रमें अन्तर्निहित है इसलिये अवधारण सहित अर्थके ज्ञानके होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति एक समय काल प्रमाण क्यों नहीं कही जाती है। समाधान-नहीं, क्योंकि जिस प्रकृतिका उदय नहीं होता उसकी उदय निषेकस्थिति उपान्त्य समयमें पररूपसे संक्रमित हो जाती है अतः दो समय कालप्रमाण स्थितिवाले दूसरे निषेककी जघन्य स्थिति एक समय प्रमाण माननेमें विरोध आता है। शंका-सम्यग्मिध्यात्वका दूसरा निषेक सम्यग्मिथ्यात्व रूपसे एक समय काल तक ही रहता है, क्योंकि अगले समयमें उसका मिथ्यात्व या सम्यक्त्वके उदय निषेकरूपसे परिणमन पाया जाता है अतः सूत्रमें 'दुसमयकालट्ठिदिसेसं' के स्थान पर 'एक समयकालट्ठिदिसेसं ऐसा कहना चाहिये ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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