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________________ २४६ ... जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ४३२. अणंताणुबंधी जेण खविदं ति अभणिय जेण विसंजोइदं ति किम वुच्चदे १ ण, जस्स कम्मस्स परसरूवेण गयस्स पुणरुप्पत्ती पत्थि तस्स कम्मस्स विणासो खवणा णाम । ण च अणंताणुबंधीणमहकसायाणं व पुणरुप्पत्ती पत्थि; पुणो वि परिणामवसेण सासणादिसु बंधुवलंभादो । तम्हा अणंताणुबंधी जेण विसंजोइदं ति सुहासियमेदं; तस्स पुणरुप्पत्तिजाणावणटुं परूविदत्तादो । जदि अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइदं तो तेण जीवेण अणंताणुबंधिचउक्कं पडि णिस्संतकम्मेण होदव्यं ण तत्थ जहण्णसामित्तस्स संभवो अभावे भावविरोहादो त्ति ? ण एस दोसो, चरिमहिदिखंडयचरिमफालियाए परसरूवेण गदाए समाणिदअणियट्टिकरणस्स विसंजोइदत्ताविरोहादो। अणंताणुबंधिकम्मक्खंधे सेसकसायसरूवेण परिणामेंतओ विसंजोएंतओ णाम । ण च एवंविहा विसंजोयणा आवलियपविणिसेयाणमत्थि; तेसिं संकमाभावादो । तम्हा अणंताणुबंधी जेण विसंजोइदं ति सुहासियमेदं । जमुदयावलियपविट्ठमणंताणुबंधिच उक्कमंतकम्मं तं जाधे दुसमयकालहिदिगं सेसं ताधे तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । ६४३२ शंका-सूत्रमें 'जिसने अनन्तानुबन्धीका क्षय कर दिया है। ऐसा न कह कर 'जिसने उसकी विसंयोजना कर दी है' ऐसा किसलिये कहा ? समाधान-नहीं, क्योंकि पररूपसे प्राप्त हुए जिस कर्मको पुनः उत्पत्ति नहीं होती है उस कर्मके विनाशको क्षपणा कहते हैं। पर जिस प्रकार आठ कषायोंकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती उस प्रकार चार अनन्तानुबन्धीकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती यह बात तो है नहीं किन्तु परिणामोंके वशसे सासनादिकमें इसका पुनः बन्ध पाया जाता है अतः जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है यह सूत्रमें उचित कहा है क्योंकि उसकी पुनः उत्पत्तिका ज्ञान करानेके लिये ऐसा कथन किया है। शंका-यदि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना हो गई तो उस जीव को अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा कमरहित हो जाना चाहिये, अतः ऐसे जीवके जघन्य स्वामित्व संभव नहीं है, क्यों कि अभावमें भावके माननेमें विरोध आता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पर-रूपसे प्राप्त हो जानेपर अनिवृत्तिकरणको प्राप्त हुए जीवके अनन्तानुबन्धीको विसंयोजित माननेमें कोई विरोध नहीं आता है। अनन्तानुबन्धीके कर्मस्कन्धोंको शेष कषायरूपसे परिमानेवाला जीव विसंयोजक कहलाता है। पर इस प्रकारको विसंयोजना आवली प्रविष्ट कर्मोंकी तो होती नहीं, क्योंकि उनका संक्रमण नहीं होता है, अतः सूत्रमें 'जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है। यह योग्य कहा है । जो उदयावलिमें प्रविष्ट अनन्तानुबन्धी चतुष्क सत्कर्म है वह जिससमय दो समय स्थितिप्रमाण शेष रहता है तब उसकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। विशेषार्थ--यहां विसंयोजना और क्षपणामें अन्तर बतलाते हुए यह लिखा है कि पर प्रकृतिरूपसे संक्रमणको प्राप्त हुए जिस कर्मकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती उस कर्मके विनाशका नाम क्षपणा है और जिस कर्मकी पुन: उत्पत्ति हो सकती है उस कर्मके विनाशका नाम विसंयोजना है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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