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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिसामित्त AAN monommonwww ~ सो इसका यह तात्पर्य है कि जो कर्म स्वोदयसे क्षयको नहीं प्राप्त होते हैं उनके द्वितीय स्थितिमें स्थित कर्मपुंजका उस समय बंधनेवाली अपनी सजातीय प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता रहता है और जो कर्मपुंज उदयावलिमें स्थित है उसके प्रत्येक अन्तिम निषेकका स्तिवक संक्रमणके द्वारा उपान्त्य समयमें उदयगत सजातीय प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता रहता है और इस प्रकार उस कर्मकी क्षपणा होती है। क्षपणाका यह लक्षण परोदयसे जिन प्रकृतियोंका क्षय होता है उनके क्षयमें ही घटित होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी क्षपणा भी इस लक्षणमें आ जाती है फिर भी उसके क्षयको क्षपणा न कहकर विसंयोजना इसलिये कहा है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी यद्यपि इस प्रकारसे क्षपणा हो जाती है फिर भी परिणामोंके वशसे सासादन और मिथ्यात्व गुणस्थानमें उसकी पुनः उत्पत्ति देखी जाती है। अब यहां थोड़ा इस बातका विचार कर लेना भी आवश्यक है कि जिस जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर ली है ऐसा जीव क्या सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त हो सकता है ? जिस जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं की है किन्तु केवल दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी उपशमना की है ऐसा प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है इसमें किसीको विवाद नहीं । हां, जिस वेदकसम्यग्दृष्टिने अनन्तानबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी उपशमना की है ऐसा द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीसे च्युत होकर सासादन गणस्थानको प्राप्त हो सकता है इसमें अवश्य विवाद है। धवला बन्धसामित्त विचयखण्डमें बतलाया है कि जिस जीवने अनन्तानबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसा जीव यदि मिथ्यात्व में आता है तो उसके एक आवलिकाल तक अनन्तानबन्धी चतष्कमें से किसी एक प्रकृतिका उदय नहीं होता है। इसका यह अभिप्राय है कि ऐसा जीव यदि मिथ्यात्वमें आता है तो उसके पहले समयसे ही यद्यपि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका बन्ध होने लगता है और अन्य प्रकृतियोंका अनन्तानुबन्धी रूपसे संक्रमण होने लगता है किन्तु बन्धावलि और संक्रमावलि करणोंके अयोग्य होती है इस नियमके अनुसार एक वलि कालतक न तो बंधे हुए कर्मोंका ही उदय हो सकता है और न बन्धके साथ संक्रमको प्राप्त हुए कर्मोंका ही एक आवलि काल तक उदय हो सकता है । जब मिथ्यात्व गुणस्थानकी यह स्थिति है तब ऐसा जीव सासादन गुणस्थानको कैसे प्राप्त कर सकता है, क्योंकि सासादन गुणस्थान अनन्तानबन्धी चतुष्कमेंसे किसी एक प्रकृतिकी उदीरणा हुए बिना होता नहीं । पर जब अनन्तानुबन्धीका सत्त्व ही नहीं और बन्धके बिना अन्य प्रकृतियां अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमणको नहीं प्राप्त हो सकती तथा अनन्तानुबन्धी का बन्ध मिथ्यात्व और सासादन प्राप्त किये बिना हो नहीं सकता। कदाचित् यह मान लिया जाय कि जिस समय ऐसा जीव सासादनको प्राप्त हो उसी समय अनन्तानुबन्धीका बन्ध होने लगे और शेष कषाय और नोकषाय अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित होकर उदीरणाको प्राप्त हो जायं तो ऐसे जीवके भी सासादन गुणस्थान बन जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि इस नियमके अनुसार संक्रमित कर्मपुंज भी एक आवलिके पश्चात् ही उदीरित हो सकता है। अतः यह सिद्ध हुआ कि षडखण्डागमके अभिप्रायानुसार ऐसा जीव सासादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता है। श्वेताम्बरोंके यहां प्रसिद्ध कर्म प्रकृतिमें बतलाया है कि ऐसा जीव सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त होता है । पर इसकी टीकामें इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है कि जिन आचार्यों के मतसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमना होती है उनके मतानुसार उपशमश्रेणीसे च्युत हुआ जीव सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त होता है । टीकाकारने मलका इस प्रकार अर्थ विठलाया है। किन्तु मूलकारका यही अभिप्राय रहा होगा यह कहना जरा कठिन है क्योंकि सो कर्मप्रकृतिके प्रकृतिस्थान संक्रम नामक प्रकरणको देखनेसे मालूम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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