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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [विदिविहाची ३ * अट्टण्ह कसायाण जहणणहिदिविहत्ती कस्स ? - ४३३, मुगममेदं । * अहकसायक्खवयस्त दुसमयकालहिदियस्स तस्स । ६ ४३४. हिदी णिसेओ त्ति एयट्ठो, दुसमो कालो जिस्से सा दुसमयकाला, दुसमयकालहिदी जस्स अट्टकसायक्ववयस्स सा दुसमयकालहिदियस्स अट्ठकसायाणं जहण्णहिदिविहत्ती । चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुहिय अधापवत्तकरण-अप्पुव्वकरणद्धाो जहाविहिविसिहानी परिवाडीए गमिय अणियट्टिकरणं पविसिय द्विदिअणुभागपदेसाणं बहुवाणं घादं कादण अणियहिअद्धाए संखे०भागे गदे अढकसायाणं खवणमाढविय आढत्तपढमसमयादो असंखेज्जगुणाए सेढीए कम्मप्पदेसक्खंधे गालयंतेण होता है कि जिस जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसा जीव भी सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है। वहां बतलाया है कि इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका इक्कीस प्रकृतिक पतद्ग्रहमें भी संक्रमण होता है । विचार करके देखनेसे यह स्थिति सासादन गुणस्थानमें ही प्राप्त होती है, अन्यत्र नहीं, क्योंकि मोहनीयका इक्कीस प्रकृतिक बन्ध सासादन में ही होता है, अतः यह निश्चित हुआ कि जिस जीवने अनन्ताबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर ली है ऐसा जीव जब सासादनको प्राप्त होता है तब उसके एक प्रावलिकाल तक अनन्तानबन्धी चतष्कका संक्रममा नहीं होता है। परन्तु जो बारह कषाय और नौ नोकषाय अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित होती हैं, उनकी पहले समयसे ही उदीरणा होने लगती है । इस व्यवस्थाको मानलेनेपर संक्रमावलि सकल करणोंके अयोग्य है यह बात नहीं रहती है ? कर्मप्रकृतिका यह विवेचन कषायप्राभृतके विवेचनसे मिलता हुआ है । अतः चूर्णिसूत्रकारने भी अनन्तानुबन्धीकी विर्सयोजना किये हुए जीवके दसरे गुणस्थानमें जाने का विधान किया है। * आठ कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? 27 ४३३ यह सूत्र सुगम है। * आठ कषायोंका तय करनेवाले जिस क्षपक जीवके दो समय कालप्रमाण स्थिति शेष रह गई है उसके उनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । ४३४ स्थिति और निषेक ये दोनों एकार्थवाची शब्द हैं। जिस स्थितिको दो समय काल है उसको दो समय कालवाली स्थिति कहते हैं। आठ कषायोंकी क्षपणा करनेवाले जिस जीवके दो समय कालप्रमाण स्थिति होती है वह दो समय काल प्रमाण स्थितिवाला कहलाता है। उसके आठ कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। ___कोई जीव जिसने चारित्रमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ किया अनन्तर जिसने जिसकी जैसी विशेषता बतलाई है उसके अनुसार अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणके कालको क्रमसे व्यतीत करके अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश किया और वहां बहुतसी स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका घात करके अनिवृत्तिकरणके संख्यातवें भाग कालके ब्यतीत होने पर आठ कषायोंके क्षयका प्रारम्भ किया और इस प्रकार आठ कषायोंके क्षयका आरम्भ करनेके प्रथम समयसे लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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