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________________ गा० २२] हिदिविह हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियंकालो ४०३ ६६६८. देवाणं णारगभंगो । एवं भवण-वाण०, णवरि सम्म० सम्मामिच्छत्तभंगो । अणदिसादि जाव अबराइद त्ति चउवीस-पयडीणं ज० ज० एगसमयो। उक्क संखेज्जा समया । अज० सव्वद्धा । अणंताणु० ओघं । सबढ० सव्वपय० जह० हिदि० जह० एगस० उक्क संखेज्जा समया। अज. सव्वद्धा एवं परिहार। एवं संजद-सामाइयछेदो०-खइयसम्मादिहि त्ति । णवरि छण्णोकसाय० ओघ । उत्कृष्ट काल भी एक समय ही प्राप्त होता है अतः इनके नाना जीवोंकी अपेक्षा उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। तथा इनके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और सान्तर मार्गणा होनेके कारण उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है। तथा इनके एक जीवकी अपेक्षा सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थिति कमसे कम अंतर्मुहूर्त काल तक पाई जाती है इसलिये सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा। तथा शेष कथन पूर्वोक्त प्रकृतियोंके समान ही है। ६६६८. देवोंके नारकियोंके समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासी और ब्यन्तर देवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थितिबिभक्तिवाले जीवोंका काल ओघके समान है। सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार परिहार विशुद्धिसंयतोंके जानना । तथा इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें छह नोकषायों की अपेक्षा काल ओघके समान।। विशेषार्थ-देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय, उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण, अजघन्य स्थितिका काल सर्वदा तथा सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओधके समान बन जाता है इसलिये इनके कथनको नारकियोके समान कहा । भवनवासी और व्यन्तरोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते इसलिये इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका कुल काल सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। उक्त दोनों प्रकारके देवोंमें इस विशेषताको छोड़कर शेष सब कथन सामान्य देवोंके समान है। अनुदिश आदिमें प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति भवके अन्तिम समयमें होती है और ये जीव मरकर मनुष्य पर्याप्तकोंमें ही उत्पन्न होते हैं अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा । तथा यहां सम्यक्त्व प्रकृतिको जघन्य स्थिति कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंके प्राप्त होती है अतः इसकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही प्राप्त होता है, क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि संख्यात ही होते हैं। पर यहां अनन्तानुबन्धीकी क्रमशः विसंयोजना करनेवाले जीव असंख्यात हैं अतः इसकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओघके समान बन जाता है। सर्वार्थसिद्धिमें देवोंका प्रमाण संख्यात ही है अतः वहां सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही प्राप्त होगा। शेष कथन सुगम है। सर्वार्थसिद्धिके समान परिहार विशुद्धि संयतोंके सब प्रेकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल प्राप्त होता है क्योंकि उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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