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________________ ४.४ जयथवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहती ६६६६ एइंदिएम मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज. अज. सव्वद्धा। सम्मत्त-सम्मामि० पंचिंदिय-अपज्जत्तभंगो । एवं पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढवि०. अपज-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरआउ०-बादराउअपज्ज.. सुहुमआउ०-सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउ०अपज्ज०-मुहमतेउ०. सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-चाउ०वादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-मुहुमवाउ०-सुहुमवाउपजत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्रेय अपज्ज०-वणफदि-णिगोद०-बादरसुहुमपज्जत्तापज्जत्तात्ति । मदिसुदअण्णा०-अभव०-मिच्छादि० -असण्णीसु एवं चेव, णवरि सत्तणोक० जह० तिरिक्खोघं। प्रमाण भी संख्यात है । तथा संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके भी सर्वार्थसिद्धिके देवोंके समान सम्भव सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल प्राप्त होता है, क्योंकि इनके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति दर्शनमोहनीयकी क्षपणआदिके समय होती है और ये जीव संख्यात ही होते हैं। किन्तु इन संयत आदिके छह नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओघके समान है क्योंकि इनके क्षपकश्रेणीमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। ६६६६. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोको जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, बनस्पतिकायिक, निगोद, बादर बनस्पतिकायिक, बादर बनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म बनस्पतिकायिक, सूक्ष्म बनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म बनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, जीवोंके जानना चाहिये । मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिथ्याहृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालेका काल सामान्य तियेचोंके समान है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंका प्रमाण अनन्त है इसलिये इनमें मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल सर्वदा बन जाता है। तथा सर्वत्र सम्यक्त्व और सम्यकग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव स्वल्प हैं अतः एकेन्द्रियोंमें भी इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके कालको पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों के समान कहा। आगे जो पृथिवी आदिक मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें कईका प्रमाण तो अनन्त है और कईका प्रमाण असंख्यात होते हुए भी बहुत अधिक है अतः इनमें भी एकेन्द्रियोंके समान सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल बन जाता है। यही बात मत्यज्ञानी आदि मार्गणाओंकी है किन्तु इनके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके कालमें विशेषता है। बात यह है कि एक जीवकी अपेक्षा इनकी जघन्य स्थितिका काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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