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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियकालो ४०५ ___६७०. वेउन्चियमिस्स० मिच्छत्त-सम्मत्त-सोलसक०-भयदुगु'छ० ज० ज० एगस० । उक्क० संखेज्जा समया । अज० ज० अंतोमु० । उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । णवरि सम्म० अज० ज० एयस० । सम्मामि० सत्तणोक० जह० पढमपुढविभंगो । अज० अणुक्कस्सभंगो।। ६७१. आहार०-आहारमिस्स०-अवगद०-सुहुम०-जहाक्खादसंजदेत्ति उकस्सभंगो। णवरि अवगद० छण्णोक० जह० ओघ । कम्मइय० एइंदियभंगो, णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० ज० ओघं । अज० अणुक्कभंगो । एवमणाहारीणं ।। एक समय है अब यदि इसे आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणा किया जाय तो आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है अतः इन मार्गणाओंमें सात नोकषायोंकी जयन्य स्थितिके कालको सामान्य तियेचोंके समान कहा, क्योंकि तियेचोंके भी इतना ही काल प्राप्त होता है। ६६७२. वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंमें, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिवालोंका जघन्य काल एक समय है। सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग पहली पृथिवीके समान है तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-जब यथायोग्य मनुष्य संयत जीव मरकर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी होते हैं तब उनके मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति पाई जाती है पर ऐसे जीवोंका प्रमाण संख्यातसे अधिक नहीं हो सकता अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा। पर यह जघन्य स्थिति अन्तिम समयमें होती है अतः इसमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा, क्योंकि वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है । तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा वैक्रियिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है इसलिये इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा। यही बात सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके संबन्धमें भी जानना चाहिये । किन्तु जिस कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंके सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण स्थिति शेष रहनपर वैक्रियिकमिश्रकाययोगकी प्राप्ति हुई है उसके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है। पहली पृथिवीमें सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है जो वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें भी घटित हो जाता है अतः इसके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके कालको पहली पृथिवीके समान कहा । तथा इन आठ प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका काल अनुत्कृष्ट स्थितिके समान है वह स्पष्ट ही है। ६६७१. आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अफ्गत वेदी, सूक्ष्म सांपरायिकसंयत । और यथाख्यात संयतोंमें उत्कृष्टके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपगत वेदमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल ओघके समान है । कार्मणकाययोगियोंमें एकेन्द्रियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल ओघके समान है। तथा अजघन्यस्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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