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________________ ४०६ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती ३ ६६७२. आभिणि सुद॰ोहि० ओघ, णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो। एवमोहिदंसण-सम्माइहि त्ति । मणपज्ज. संजदभंगो । णवरि इत्थि० णवुस० छण्णोकसायभंगो। संजदासंजद-वेदय० अणुदिसभंगो । उवसम० चउवीसपयडी० ज० ज० एगसमयो । उक्क० संखेजा समया। अज० अणुक्कभंगो। अणंताणु०चउक्क० उक्क०भंगो । सम्मामि० सव्वपय० जह० ज० एगस० । उक० संखेज्जा समया । अज० अणुक्क भंगो। णवरि सम्म०-सम्मामि० ज० ज० एगस० । उक्क० आवलि० असंखे०भागो । सासण. सबपयडी० ज० ज० एगसमयो । उक्क० संखेज्जा समया । अज० ज० एगस० । उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं कालाणुगमो समत्तो। ®णाणाजीवेहि अंतरं । सव्वपयडीणमुक्कस्सहिदिविहत्तियाणमंतर केवचिरं कालादो होदि । ६६७३. सुगममेदं । के जहणणेण एगसमो। के समान है । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। ६६७२. आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधि ज्ञानियोंमें ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है। इसी प्रकार अवधि दर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानियोंमें संयतोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है। संयतासंयत और वेदकसम्यग्दृष्टियों में अनुदिशके समान भंग है। उपशम सम्यग्दृष्टियोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग उत्कृष्टके समान है । सम्यग्मिध्यादृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सासादन सम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रेमाण है। इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। * अब नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरानुगमका अधिकार है। सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तरकाल कितना है ? ६६७३, यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर काल एक समय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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