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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियअंतरं .
६७४. कुदो ? उक्कस्सहिदिसंतकम्मेणच्छिदसव्वजीवेसु अणुक्कस्सहिदिसंतकम्मेण एगसमयमच्छिय तदियसमयम्हि उक्कस्सहिदिबंधेण परिणदेसु उक्कस्सहिदीए एगसमयंतरुवलंभादो।
* उकस्सेण अंगुलस्स असंखेञ्जदि भागो।। ... ६७५ कदो? एक्किस्से हिदीए उक्कस्सहिदिबंधकालो जदि अंतोमहत्तमेत्तो लब्भदि तो संखेजसागरोवमकोडाकोडीमेत्तहिदीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए प्रोवहिदाए अंगुलस्स असंखेजदिभागमेन्तरकालुवलंभादो । एवं जइवसहपरूविदचुण्णिसुत्त देसामासियं परुविय संपहि तेण सूचिदत्थस्सुच्चारणाइरियपरूविदवक्खाणं भणिस्सामो । . ६७६, अंतरं दुविहं जहण्णमुक्कस्सं च । तत्थ उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वपयडीणमुक्कस्संतरं के० १ जह० एगस। उक्क० अंगुलस्स असंखेजदिभागो । अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं सत्तसु पुढवीसु, सव्वतिरिक्ख-मणसतिय-सव्वदेव-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-छकाय०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालियमिस्स०-वेउविय-तिण्णिवेद-चत्तारि-क०-म
६६७४. शंका-जघन्य अन्तरकाल एक समय क्यों है ?
समाधान-क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मरूपसे स्थित सब जीवोंके अनुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म रूपसे एक समय तक रह कर तीसरे समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धरूपसे परिणत होने पर उत्कृष्ट स्थितिका एक समय प्रमाण अन्तरकाल पाया जाता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। - ६ ६७५ शंका-उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण क्यों है ?
समाधान-एक स्थितिका उत्कृष्ट स्थितिबन्धकाल यदि अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है तो संख्यात कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितियोंका कितना प्राप्त होगा, इस प्रकार फल राशिसे इच्छा राशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके द्वारा कहे गये देशामर्षक चूर्णिसूत्रका कथन करके अब उसके द्वारा सूचित होने वाले अर्थका जो उच्चारणाचायने ब्याख्यान किया है.उसे कहते हैं
६६७६. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमें से ओघकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सब तियेच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, सब देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, छहों स्थावरकाय, पांचों मनोयोगी, पांचों बचनयोगी. काययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले,
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