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________________ २३७ गा० २२) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिसामित सम्मामि० उक्क० कस्स० १ अण्ण० जो तिगदिओ उक्कस्सहिदि बंधिदूण अंतोमुहुनपडिहग्गो संतो वेदगसम्म पडिवण्णो तेण सम्मत्रेण सह सबलहुअमंतोमुहुत्तद्धमच्छिय मिच्छतं गदो । तदो मिच्छत्तेण हिदिघादमकादण पढमसमयएइंदिरो जादो तस्स उक्क० विहत्ती । णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्णदरस्स जो देवो उक्कस्सहिदि बंधमाणो कालं कादूण एइंदिओ जादो पडमसमयमादि कादूण जीव आवलियउववण्णस्स तस्स उक्क० हिदिविहत्ती । एवमेइ दियपज०-बादरएइंदिय-बादरेइंदियपज्ज०-पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविपन्जा-अाउ०-बादराउ०-बादरभाउपज्ज०वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदिपज्ज०-बादरवणप्फदिपत्रेय०-बादरवणप्फदिपत्तेयपज ०-असण्णि चि । ओरालियमिस्स० एवं चेव । णवरि देव णेरइयपच्छायदाणं कादव्वं । की उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? तीन गतियोंका जो कोई एक जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर अन्तर्मुहूर्त कालमें प्रतिभग्न होकर तथा सम्यक्त्वके योग्य विशुद्धिको प्राप्त होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अतिलघु कालतक वेदकसम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। तदनन्तर मिथ्यात्वके साथ स्थितिघात न करके एकेन्द्रिय हुआ। उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक देव कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर मरा और एकेन्द्रिय हुआ। उसके उत्पन्न होनेके पहले समयसे लेकर एक आवली प्रेमाण कालके भीतर नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय पर्याप्तक, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर, पृथिवीकायिक पर्याप्तक, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्तक, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्तक और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि जो देव और नारक पर्यायसे वापिस आकर औदारिक मिश्रकाययोगी हुए हैं उनके उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कहनी चाहिये। विशेषार्थ-मूलमें एकेन्द्रिय आदि ऐसी मार्गणाए गिनाई हैं जिनमें देव पर्यायसे आकर जीव उत्पन्न हो सकते हैं, अतः इन सबमें एकेन्द्रियों के समान सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति बन जाती है। किन्तु औदारिकमिश्रकाययोगमें उत्कृष्ट स्थिति कहते समय देव और नारक पर्यायसे आकर जो औदारिकमिश्रकाययोगी हुए हैं उनके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। यहां यह शंका की जा सकती है कि जो उक्त मार्गणाओंमें देव पर्यायसे आकर उत्पन्न हुए हैं और औदारिकमिश्रकाययोगमें देव या नारक पर्यायसे आकर उत्पन्न हुए हैं उन्हींके उत्कृष्ट स्थिति क्यों प्राप्त होती है जो तिर्यंच या मनुष्य पर्यायसे आकर उक्त मार्गणाओंमें उत्पन्न हुए हैं उनके उत्कृष्ट स्थिति क्यों नहीं प्राप्त होती है । सो इसका समाधान यह है कि अतिसंकलेशसे मरा हुआ तिर्यंच और मनुष्य नारक पर्यायमें उत्पन्न होगा अतः यहां देव और नारक पर्यायसे यथायोग्य उत्पन्न कराकर ही उक्त मार्गणोंमें उत्कृष्ट स्थिति कही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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