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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४४३ . बंधाविय श्रोदारेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एगा हिदी दुसमयकालपमाणा चेहिदा ति । एवमोदारिदे दसमभंगपरूवणा गदा होदि १० । ___६७३०. संपहि चत्तारि एगसंजोगे भंगे च दुसंजोगभंगे च परूविय तिसंजोगभेगपरूवणा कीरदे । ताए कीरमाणाए मिच्छत्तु क्कस्सहिदि समयूणादिकमेण बंधाविय पडिहग्ग-सम्मत्तद्धाओ परिवाडीए समयुत्तर-दुसमयुत्तरादिकमेण वड्डाविय मिच्छत्तद्धमवहिदं करिय मिच्छत्त क्कस्सहिदि बंधाविय णेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एगा हिदी दुसमयकाला सेसा ति । एवं णीदे एक्कारसमपरूवणा तिसंजोगभंगम्मि पढमा परूविदा होदि ११। दोनों जगह मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होने तक उसकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये। इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थितिके घटाने पर दसवें भंगकी प्ररूपणा समाप्त होती है। विशेषार्थ—यहाँ दो संयोगकी अपेक्षा पाँचवीं प्ररूपणा तीन प्रकारसे की है। पहले प्रकारमें बतलाया है कि मिथ्यात्वकी एक एक समय स्थिति कम करता जाय और प्रतिभग्न कालमें सर्वत्र एक समय बढ़ावे तथा शेष दो कालोंको अवस्थित रखे। दूसरे प्रकार में यह बतलाया है कि सर्वत्र एक समय कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करावे और प्रतिभन्न कालमें एकसंयोगी दूसरी प्ररूपणामें बतलाई विधिके अनुसार एक एक समय बढ़ाता जाय-तथा शेष दो कालोंको अवस्थित रखे। तीसरे प्रकारमें यह बतलाया है कि एक बार मिथ्यात्वकी स्थिति घटावे और दूसरी बार प्रतिभग्न कालमें एक समय बढ़ावे तथा शेष कालोंको अवस्थित रखे । इस प्रकार इन तीनों प्रकारोंसे सम्यक्त्वकी उत्तरोत्तर कम स्थिति प्राप्त की जा सकती है। द्विसंयोगी छठी प्ररूपणामें प्रतिभग्न कालके स्थानमें सम्यक्त्वके काल में एक एक समय बढ़ाना चाहिये । शेष सब कथन पाँचवीं प्ररूपणाके समान है । सातवीं प्ररूपणामें प्रतिभन्न कालके स्थानमें मिथ्यात्वके कालमें एकएक समय बढ़ावे । शेष सब कथन पाँचवीं प्ररूपणाके समान है। द्विसंयोगी आठवीं प्ररूपणामें सर्वत्र मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करावे किन्तु प्रतिभग्नकाल और सम्यक्त्वकालमें एक-एक समय बढ़ाता जाय । नौवीं प्ररूपणामें प्रतिभग्नकाल और मिथ्यात्वकालको एक समय बढ़ाना चाहिये । तथा दसवीं प्ररूपणामें सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके कालको एक-एक समय बढ़ावे । इस प्रकार करनेसे सर्वत्र सम्यक्त्वकी उत्तरोत्तर कम स्थिति प्राप्त हो जाती है। चारके द्विसंयोगी भंग कुल छह ही होते हैं, अतः यहाँ द्विसंयोगी प्ररूपणा छह प्रकारसे की गई है। ६७३०. इससे पहले चार एकसंयोगी भंग और द्विसंयोगी भंगोंकी प्ररूपणा करके अब तीनसंयोगी भंगोंकी प्ररूपणा करते हैं। उस तीन संयोगी भंगोंकी प्ररूपणाके करने पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय कम, दो समय कम इत्यादि क्रमसे बन्ध करावे और मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके अवस्थित कालको तथा सम्यक्त्वके अवस्थित कालको उत्तरोत्तर एक समय अधिक, दो समय अधिक इत्यादि कमसे बढ़ाता जावे और मिथ्यात्वके कालको अवस्थित करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके सम्यक्त्वकी दो समय प्रमाण एक स्थितिके शेष रहने तक सम्यक्त्वकी स्थितिको घटाते हुए लेजाना चाहिये । इस प्रकार लेजाने पर ग्यारहवीं प्ररूपणा और तीन संयोगी भंगमें पहली प्ररूपणाका कथन समाप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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